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________________ सुधीः कोऽमेध्यपूर्णेऽस्मिन् कृमिजालशताकुले। रज्येत् कलेवरे विस्रदुर्गंधरसभाजने ? ॥ विष्टा से भरपूर, सैंकडों कृमियों के समूह से आकुलित, मांस के दुर्गंध रस का पात्र इस शरीर पर, कौन बुद्धिमान् रागी बन सकता है? ऐसी वैराग्यवाणी सुनने पर भी, व्रत की अवधि पूर्ण होने पर, राजा पूर्ववत् भोगों की अभिलाषा करते हुए उसके पास गया । रतिसुंदरी ने फिर से समझाया- यदि इस शरीर के अंदर रहा हुआ, सब बाहर हो जाये तो विषयासक्त पुरुष भी दंड आदि को धारणकर, गीध आदि मांसभक्षी पक्षियों से इस शरीर के रक्षण में लग जायेगा । मल-मात्र आदि धारण करने में पात्र के समान, कौन बुद्धिमान् पुरुष स्त्रियों के शरीर पर रागी बन सकता है? घर में पड़ी विष्टा पर कोई राग नहीं करता है, वैसे ही मलमूत्र से भरे स्त्री के शरीर पर चतुर पुरुष राग नहीं करता है । राजन् ! बहुत से छिद्रों सेर दुर्गंध से युक्त अशुचि के लिए घर रूप बनें इस देह में, तुझे क्या राग उत्पन्न कर रहा है? राजा ने कहा- तेरी सुंदरता के बारे में क्या कहें? तेरी दोनों आँखों ने ही मेरा मन मोह लिया है। यह पृथ्वी / राज्य देने पर भी, उसका मूल्य किया नहीं जा सकता है। राजा का राग, अपने ऊपर से कम होता न देखकर शीलरक्षा की विधि में दूसरा उपाय न देखकर, उस चतुर महासती ने साहसकर किसी अस्त्र से अपनी दोनों आँखों को निकाल दी। सहसा ही राजा के हाथों में सोंपती हुई कहने लगी-राजन् ! तुम्हारी प्रिय दोनों आँखों को ग्रहण करो । नरक का कारणभूत, दूसरे के शरीर से संग करने से आज के बाद जिंदगी पर्यंत रहा। राजा भी यह देखकर दुःखित हुआ और कहने लगा-हा ! धिक्कार है! तूने अचानक ही यह भयंकर कार्य क्यों किया? उसने कहा- जिससे कुल की मलिनता हो, पृथ्वी पर अपयश होता हो और अंत में दुर्गति की प्राप्ति होती हो, उस कार्य को करने से पहले मरण ही श्रेष्ठ है। शील के जीवित रहने पर कुल और दोनों लोक में यश भी जीवित रहते हैं। इसलिए ही प्राण त्याग कर भी कुलीन स्त्रियों को शील की रक्षा करनी चाहिए। राजन् ! अन्य स्त्री में आसक्त तेरा भी इहलोक और परलोक में न ही धर्म की प्राप्ति होगी और न ही सुख की। इस बात को अपने हृदय में अच्छी प्रकार से विचार कर लेना । राजा भी युक्तियुक्त उसकी बातों को सुनकर, बोध प्राप्त किया और हर्ष के साथ रतिसुंदरी से कहने लगा- भद्रे ! तूने मुझे सुंदर बोध दिया है। मैं इस पाप से निवृत्त होता हूँ। आज के बाद मैं भी परस्त्री-विरति का नियम ग्रहण करता हूँ। हा! मैंने तुझ महासती पर कैसे अनर्थ किये हैं? महासती! कृपावती! तुम मेरे उन अपराधों को क्षमा करो। बाद में रतिसुंदरी कायोत्सर्ग में रहकर, शासनदेवता का स्मरण किया। पुनः दोनों आँखों को प्राप्तकर वह सुंदर बनी। यह देखकर राजा अत्यन्त खुश हुआ। और वस्त्र, आभूषण आदि 26
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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