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________________ को बंधवाया। राजमर्यादा छोड़कर उसका सर्वस्व लूट लिया। दुर्बुद्धि राजा ने अपने अंतःपुर में विनयन्धर की पत्नीयों को रखा। तुम विरुद्धपक्ष की रक्षा करना चाहते हो, इस प्रकार राजा ने नागरिकों की निंदा करने लगा। राजा उन स्त्रियों का रूप देखकर, न्यायमार्ग में अत्यन्त शिथिल बन गया और सोचने लगा-स्वर्ग की देवियाँ भी ऐसी नहीं होगी। इस कारण से मैं धन्य हूँ, सन्माननीय हूँ, क्योंकि मेरे पास ऐसी स्त्रियाँ हैं। यदि ये स्त्रियाँ, स्वयं ही मुझ से प्रीति करती हैं, तो सौभाग्य के ऊपर मंजरी के समान होगा। मुझे चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। सब मनोरथ धीरे से सिद्ध हो जायेंगे। क्या भूखे मनुष्य से उदुंबर का फल शीघ्र ही पच जाता है? इस प्रकार सोचकर राजा ने उनको शयन, आसन, आभूषण आदि दिलाये। विनयन्धर की स्त्रियों ने विष के समान उन चीजों की ओर लक्ष्य नहीं दिया। अन्य दिन राजा उनके पास दासियाँ भेजी। दासियाँ विनय से झुककर कहने लगी-स्वामिनी! आप चिंता छोड़ दें। आपका पुण्य फलित हुआ है, क्योंकि हमारा राजा, तुमको चाहिए उतनी अनुकूलता दे रहा है। राजा यदि क्रोधित बन जायें, तो यम का रूप धारण कर लेगा और खुश हो जाय तो आपको मालामाल करेगा। इसलिए अपने चित्त से शोक रूपी चंडाल को दूरकर, मानव भव के दुर्लभ भोग, राजा के साथ भोगो। शील रूपी श्रृंगार से श्रेष्ठ विनयन्धर की स्त्रियों ने दासियों से कहासखि! कोलाहल से आकुलित बनी तुम यह बात बार-बार मत कहो। यदि यह दुष्ट राजा क्रोधित हुआ है, तो हमारा प्राणांत ही करेगा। वह भी हमारे लिए सुंदर ही होगा। क्योंकि अखंड शीलवती स्त्रियों को मृत्यु भी श्रेयस्करी होता है। अग्नि में प्रवेश करना उचित है, किन्तु व्रत का खंडन करना ठीक नहीं। मृत्यु श्रेष्ठ है किन्तु शील से भ्रष्ट का जीवन उत्तम नहीं है। इस प्रकार के अद्भुत वाक्यों से, उन्होंने दासी का तिरस्कार किया। दासियों ने भी आद्यपर्यंत राजा को कह सुनाया। राजा उनका निश्चय जानकर भी, अपने इष्ट की सिद्धि के लिए, अपने चित्त में अत्यन्त चिंतित होते हए उनके पास आया। दुष्ट, अनिष्ट और निष्ठुर राजा को, उन्होंने आँख से भी नहीं देखा। तथापि राजा वहाँ से नहीं हटा। अहो! मोह के खेल को धिक्कार है। दूसरे दिन अग्नि के ज्वाला के समान लाल-पीले बालोंवाली, टेडे दांत, होंठ और नाक को धारण करनेवाली, इस प्रकार सर्व अंगों से अत्यन्त गर्हनीय और उद्वेग पैदा करती उनको देखकर, राजा चित्त में सोचने लगा-क्या यह आँखों का धोखा है? अथवा भाग्य की लीला है? अथवा यह कोई पाप का प्रयोग है? जो अकस्माद् ही प्रकट हुआ है। इस घटना के बारे में जानकर, रानी विजयन्ती 22
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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