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________________ फल नही होते है। तूने अश्रद्धाकर विष्टा भक्षण से खुद की आत्मा को ही अपवित्र बना दी है। कपिल ने पूछा- मनुष्य रहित इस द्वीप में विष्टा कहाँ से आ सकती है? उसने कहा यह मेरी और तुम्हारी है। तो कठिन क्यों है ? व्यापारी ने कहा बहुत दिनों से रहने के कारण। यह बात जानकर कपिल शोक करने लगा। व्यापारी ने समझाया - तुम स्नान से स्वर्ग, मोक्ष के निबंध पुण्य मानते हो | यह तेरा महान् मोह है । उस स्नान से देह का अन्तर्मल भी शुद्ध नही होता है, तो आत्मा पर रहा पाप कैसे शुद्ध कर सकता है? स्नान तो अभिमान, राग आदि को बढ़ाता है। शिवपुराण में भी कहा है कि - पापकर्म अशुचि है और शुद्धकर्म शुचि है। इसलिए शौच कर्मात्मक है, पानी के द्वारा शौच निरर्थक है । सर्व प्राणियों पर समता, मन-वचन-काया का निग्रह, पापध्यान और कषायों के निग्रह से शुचि होती है। एकादशीपुराण में भी कहा गया है कि - गंगा उससे पराङ्मुख है जिसका चित्त राग आदि से क्लिष्ट है, झूठें वचनों से मुख, जीव घात आदि से काया क्लिष्ट है। गंगा के बिना भी यह शुद्ध है - जिसका चित्त क्षमा आदि से शुद्ध है, सत्यभाषणों से वचन तथा ब्रह्मचर्य आदि से काया शुद्ध है। गंगा भी कहती है कि पर स्त्री, पर द्रव्य से पर द्रोह से पराङ्मुख व्यक्ति कब आकर मुझे पवित्र करेगा। - लेकिन कपिल ! देवपूजन करने के लिए उत्तम पुरुषों को सदैव स्नान अवश्य कर्त्तव्य है। इसलिए ही लोक में यह बात प्रसिद्ध हुयी है कि स्नान धर्म के लिए होता है। परंतु बहुत जल से भी समग्र बाह्यमल की शुद्धि नही होती है तो कर्ममल को कैसे शुद्ध कर सकता है? इसलिए धर्मार्थी के द्वारा शक्य परिहार्य है, अशक्य नही । व्यापारी की बातें सुनकर कपिल ने बोध पाया और पुनः अपने देश में लौटकर स्वजन- -संबंधी से मिला । प्रायश्चित्त स्वीकारकर शुद्ध बना और सर्वदर्शन मान्य शौचाचार का पालन करने लगा। राजन् ! अशुचि से डरते कपिल ने जिस प्रकार अशुचि का भक्षण किया, वैसे ही तुम भी दुःख के भय से मरकर दुःख ही प्राप्त करोगे । पाप से दुःख होता है और प्राणिघात से पाप होता है। परप्राणों के घात से भी स्वप्राणों का घात विशेष है। धर्म से पाप क्षय होता है, दुःख भी नष्ट हो जाता है। इस लिए तुम निश्चित बनो और जिनधर्म का पालन करो। दूसरी बात यह है कि हम निमित्त के बल से यह जान रहे हैं कि - तेरा ऐसा करने पर भी, कलावती अखंड देहवाली है और भविष्य में तुम उससे मिलोगे भी। बाद में अत्यंत उन्नति प्राप्त कर, आनंद समूह से भरा हुआ तू एक दिन राज्य को भी छोड़कर शीघ्र ही दीक्षा ग्रहण करेगा। राजन् ! मेरे वचन से तू एक दिन के लिए प्रतीक्षाकर। विश्वास होने के बाद तुझे जो अच्छा लगे वह करना। इस प्रकार 14
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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