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________________ सभी धन को चार भागों में विभाजित करो। सोम ने कहा - तुम्हारें कर्म के दोष से ही धन, धूल आदि के रूप में परिवर्तित हुआ है। इसमें मेरा क्या दोष है? स्त्रियोंने कहा - मूढ! तुम संपूर्ण धन पर लुब्ध क्यों हो रहे हो? इस प्रकार वे परस्पर विवाद करने लगे। सज्जन पुरुषों ने कहा - तुम दरबार में जाकर इसका फैसला करो, जिससे तुम्हारें कुल में अनर्थ न हो। उन्होनें छह महीने तक नित्य धर्मधिकरण की सेवा की, परंतु प्रधानोंने कोई व्यवस्था नही की। राजन्! आपको इस विषय में ध्यान देना चाहिए। तब हंसकर राजा ने पूछा – किसी ने विवाद का निर्णय किया था अथवा नही? उसने कहा - देव! किसी ने भी नही किया। उससे वे निराश होकर विदेश चले गएँ। किसी गाँव में सुखपूर्वक बैठे पशुपालक को देखकर, उन्होनें नमस्कार किया और सामने बैठ गएँ। पशुपालक ने पूछा-कहाँ से आएँ हो? कहाँ जाना है? उन्होनें सर्व व्यतिकर सुनाया। पशुपालक ने कहा - तुम्हारे पिता पंडित और हितकर्ता है। उन्होनें जिसके लिए जो योग्य है, वह ही दिया है। समस्त कृषिकर्म धन को चतुष्पद आदि सर्व धनद को, दूकान, व्यापार, पैसा ग्रहण आदि सब धर्म को। तथा सोम बालबुद्धि धारक होने से वह व्याज के कर से सुखी होगा। पुनः धन तो बिजली के समान अनित्य है, अर्कवृक्ष के कपास के समान असार है। इसके लिए तुम्हें कलह नहीं करना चाहिए। क्योंकि लालन-पालन करने पर भी स्वजन दूर हो सकतें है, कष्ट में क्रोधित होने पर भी भाई ही सहायक होते हैं। वृद्ध पशुपालक की बातें सुनकर, वे कदाग्रह रहित बनें और परस्पर क्षमा याचना माँगकर नयें जन्म के समान खुश होते हुए नगर में महोत्सव मनाया। विष्णुकंठ के द्वारा कही गयी उस कथा को सुनकर सभी आश्चर्यचकित होकर कहने लगें - अज्ञात ग्रामीण ने उस विवाद का समाधान कैसे किया? यह बात सुनकर राजा विचाराधीन हुआ - यदि उस पशुपालक ने कल्पनातीत के विषय में दूर रहकर ही समाधान कर लिया था, तो शास्त्रज्ञ ऐसी कमला को काम में कौशल्य होगा ही। वैसी स्त्रीरत्न के विनाश करने से मैं अनार्य, निर्लज्ज, अभागी हूँ। राजा चिंताग्रस्त होकर मंत्री से कहने लगा - मैं महापापी हूँ। अब मैं अपनी प्रिया के बिना प्राण धारण करने में असमर्थ हूँ। इसलिए मैं चिता में प्रवेश करना चाहता हूँ। तब मंत्री ने रहस्य में कहा - देव! मैंने आपकी आज्ञा का पालन किया है। मैंने जीवित देवी को रहस्य में छिपा रखी है। राजा आनंदित होते हुए कहा - मित्र! इसकी रक्षा कर, तूने मुझे भी जीवन-दान दिया है। राजा ने कमला को बुलाकर क्षमा माँगी और वे दोनों अत्यंत प्रीतिपूर्वक रहने लगें। जिस प्रकार पभ राजा ने पहले खुद को दुःख में डाला तथा दृढ जडता से पीडित हुआ, वैसे तुम भी खुद को दुःखित कर रहे हो। इस लिए तत्त्व के
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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