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________________ पूर्ण हो जाने से बाजपक्षी बना। वहाँ से तीसरी नरक में गया और पश्चात वन में सिंह बना। वहाँ से दूसरी नरक में आया। तीन सागरोपम प्रमाण आयु को महादुःखपूर्वक पूर्ण कर, श्रीधन नामक नगर में, कामदत्त व्यापारी के घर में वसुदत्ता पत्नी की कुक्षि से पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका सुमित्र नाम रखा गया। क्रम से बढ़ते हुए यौवन अवस्था में आया। पूर्व कर्म के प्रभाव से वह दुःख, दौर्भाग्य पात्र बना। जिनप्रिय देव भी उसी श्रेष्ठ नगर में, विनयन्धर श्रेष्ठी का गुणन्धर नामक पुत्र हुआ। वह भी क्रम से यौवन अवस्था में आया। पूर्वभव के अभ्यास से सुमित्र पर गुणन्धर का स्नेह था। माता-पिता के कालधर्म प्राप्त करने के बाद, गुणन्धर की संपत्ति धीरे-धीरे क्षीण होने लगी और वह लोगों में तिरस्कारपात्र बनने लगा। गुणन्धर ने एकदिन मधुर वाणी में सुमित्र से कहा - हम दोनों देशांतर जाकर धनार्जन करतें हैं। कपटता की वृत्ति से सुमित्र ने भी उसके वचन स्वीकार किए। धन कमाने के लिए बेचने की सामग्री साथ में लेकर दोनों ने परदेश की ओर प्रयाण किया। अनेक देशों का उल्लंघन करते हुए वे दोनों एक बडी अटवी में आएँ। किसी सार्थ ने भी उसी अटवी में आवास किया था। कौतुकता से वे दोनों वन में घूमने लगें। दोनों उदुंबर वृक्ष की छाया में वस्त्र के ऊपर सो गएँ। गुणन्धर निद्राधीन हो गया और सुमित्र वहाँ से पलायन कर वापिस सार्थ में आगया। भिलों ने उस गुणन्धर को पकड लिया है, इसलिए लोगों! तुम भाग जाओ इस प्रकार कहकर उसने सार्थ को वहाँ से चलने की प्रेरणा की। और स्वयं कपट के प्रयोग से उस धन का मालिक बन गया। अब ब्रह्मा/विधाता ने मुझे कोमल दृष्टि से देखा है, इस प्रकार के विचारों से, सुमित्र आनंदमग्न बन गया। उतने में ही मध्याह्न के समय दावानल की अग्नि आकाश में व्याप्त होने लगी। संपूर्ण बेचने की सामग्री जल गयी और सभी लोग एक दिशा से दूसरी दिशा में भागने लगे। सर्वस्व नष्ट हो जाने से, उस दुष्ट हृदयवाले सुमित्र ने भी अपने प्राणों को बचाकर वहाँ से पलायन किया। भूख-प्यास से पीडित तथा सूर्य के ताप से थका हुआ वह पर्वत के तट पर पहुँचा। वहाँ पर भीलों ने उसे पकडकर, भीगी चामडी से बांध दिया। तीन रात्रि के बाद, भिलोंने उसे छोड दिया। पश्चात् भिक्षावृत्ति से जीवन यापन करते हुए पृथ्वीतल पर विचरणे लगा क्योंकि पापकर्मों की ऐसी ही गति होती है। इधर गुणन्धर सुमित्र के ऊपर विश्वास से सो गया था। पल्लीपति ने जगाकर वहाँ पर सोने का कारण पूछा। गुणन्धर ने भी अपना यथास्थित वृत्तांत पल्लीपति से कहा। पश्चात् पल्लीपति ने प्रयत्नपूर्वक अपने सैनिकों के द्वारा वहाँ 115
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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