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________________ आदि से संमान कर, राजा ने विवाह की स्वीकृति दी । सुवेग ने कनकध्वज को सो कन्याएँ दी और सूरवेग ने जयसुंदर को सो कन्याएँ दी। दोनों कुमारों ने दूसरी भी बहुत-सी राजकन्याओं के साथ विवाह किया। उससे प्रत्येक को पाँच सो पत्नियाँ हुयी । सुमंगल राजा अपने पुत्रों की ऋद्धि देखकर अत्यंत विस्मित हुआ । प्रभातकाल में जागकर अपने हृदय में सोचने लगा अहो! मेरे पुत्रों का प्रबल पुण्योदय है, जिसके प्रभाव से भूचर तथा विद्याधर राजा भी इनकी सेवा करतें हैं। सर्वत्र पुण्य ही प्रधान है। सपुत्ररत्नों को प्राप्तकर, अब मुझे भी परलोक हित के बारे में सोचना चाहिए। सद्धर्म की सेवा से परलोकहित होता है। किंतु लोक में सद्धर्मसेवी दुर्लभ हैं। उनमें सत्यवादी और मृषावादी का भेद कैसे जाना जा सकता है? मृषावादियों के वचन से तो उल्टा अनर्थ ही होता है। इस प्रकार विचारकर राजा ने मतिसुंदर मंत्री से पूछा। उसने कहा - प्रभु ! समस्त संन्यासियों से धर्म के बारे में पूछकर, आप अपने हृदय में निर्णय करे। जो संसार और विषय से विमुख है, उसे सद्धर्म जाने और वह ही परलोक हितेच्छुओं से सेव्य है। जब राजसभा में इस प्रकार की चर्चा चल रही थी, तब आकाश में देवदुंदुभि की आवाज सुनायी दी। जयकार शब्द के साथ नागरिक लोग उद्यान की तरफ चल पडें। राजा भी आश्चर्यचकित होकर कुछ सोचने लगे, उससे पहले ही वनपालक ने आकर विज्ञप्ति की - प्रभु! देवरमण उद्यान में मूर्तिमंत धर्म के समान श्रीस्वयंवरसूरि पधारे हुए है। उन्हें आज प्रातः ही केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। उनके पाद कमल की सेवा करने के लिए, देव भी उत्साहसहित भ्रमर के समान लीन बन रहें हैं। इसलिए स्वामी ! उन भगवान् को नमस्कार करने के लिए तथा तत्त्व जानने के लिए, आपका वहाँ पधारना उचित है। यह सुनकर अपने मनोवांछित की सिद्धि मानता हुआ राजा, चतुरंगसेना के साथ गुरु के समीप आया। उनकी स्तुति तथा नमस्कारकर, राजा पृथ्वीतल पर बैठा। तब केवलीभगवंत ने इस प्रकार देशना प्रारंभ की - भव्यप्राणियों ! अपार तथा महाभयंकर इस संसार रूपी अटवी में सिद्धगति के कांक्षी भव्यप्राणियों को शुद्धमार्ग मिलना दुर्लभ है | कुमार्ग बहुत होने से, मोक्षार्थी जीव भी उनमें मोहित होकर, महाभयंकर दुःख प्राप्त करतें हैं। इस भव अरण्य में राग रूपी उग्र सिंह, द्वेष रूपी शेर, मोह रूपी राक्षस, क्रोध रूपी दावानल, मान रूपी पर्वत, गूढ माया रूपी कुमार्ग और लोभ रूपी कूप है। इन सभी के द्वारा अखिल प्राणीगण दुःखित किए जाते हैं। विषय रूपी विषवृक्षों के नीचे विश्राम करतें प्राणी, अचेतनता प्राप्त कर लेते हैं। मित्र रूप में धूर्त लोग, भव्यप्राणियों का हरणकर, कुमार्ग पर चढातें हैं। और अज्ञान से दिग्मूढ बनकर दुर्गति के खड्डे में गिर जातें हैं । वे मूढप्राणी कभी भी भव-अटवी का पार प्राप्त 110 -
SR No.022710
Book TitlePruthvichandra Gunsagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaivatchandravijay
PublisherPadmashree Marketing
Publication Year
Total Pages136
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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