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________________ धन्य-चरित्र/85 चतुराई से उसके दृष्टि-पथ का अनुगमन करते हुए वह दृश्य देखा। देखते ही सुनन्दा का आशय समझ गयी-"इस दम्पति के विलास भाव को देखकर यौवन के प्राग्भाव के उदय से इसका चित्त विकृत हो गया दिखाई देता है। अपने लिए भी ऐसे ही सुख के आर्त्त-ध्यान में पड़ गयी है।" __ तब थोड़ा हँसकर मर्म-वचन से कहा-“हे विदुषी स्वामिनी! जो तुम देखती हो, वह तुम्हे रूचता है या नहीं?" ___ इस प्रकार दो-तीन बार बोलने पर वह भी थोड़ा हँसकर अत्यधिक दीर्घ-निःश्वास छोड़कर बोली-“हे सखी! मुझे ऐसा सुख कहाँ?" _ प्रिय सखी ने कहा-"स्वामिनी! इस प्रकार के दीन वचन मत बोलो। अभी माता के पास जाकर तुम्हारा आशय कहकर थोड़े ही दिनों में तुम्हारा दुःख दूर कर दूंगी और सुख-समुद्र में स्थापित कर दूंगी। क्यो निरर्थक आर्त्त-ध्यान करती हो? सब अच्छा ही होगा।" सखी के इस प्रकार कहने पर सुनन्दा ने कहा-“सखी! अभी तुम माता के पास कुछ भी न कहना। मुझे बहुत लज्जा आती है। अतः धीरे-धीरे किसी उपाय के द्वारा उन्हें बतायेंगे। पर अभी तो नहीं।" उसके इस प्रकार कहने पर सखी ने कहा-"स्वामिनी! अब यहाँ से हट जाइए। यहाँ पर आप जैसे-जैसे देखेंगी, वैसे-वैसे विरह आर्ति बढ़ेगी। अतः चलो। नीचेवाले प्रस्तर में बैठकर आपकी आर्ति को दूर करने का उपाय करें।" इस प्रकार कहकर उसका हाथ पकड़कर निचले प्रस्तर में चतुष्पथ की ओर स्थित गवाक्ष में आकर चतुष्पथ को देखती हुई बैठ गयी। इसी अवसर पर वह कौतुक-प्रिय रूपसेन सायंकालीन भोजन करके दिन की दो घड़ी अवशेष रहने पर भव्य वस्त्र-आभरण धारण करके सुनन्दा के आवास के सम्मुख पान की दुकान पर आया। पनवाड़ी ने भी उसे अत्यन्त आदरपूर्वक ऊँचे आसान पर बिठाया। क्योंकि धनी सर्वत्र मानमाप्नोति। अर्थात् धनी सर्वत्र मान को प्राप्त होता है। ताम्बूलिक ने उसे भव्य बीड़ा दिया। रूपसेन भी उसे चबाता हुआ नगर के आश्चर्य को देखता हुआ बैठ गया। इसी बीच कामदेव के रूप को जीतनेवाला रूपसेन सुनन्दा के दृष्टि-पथ पर आया। अति अद्भुत रूप से युक्त उस कुमार को देखकर गाढ़ अनुरक्त होते हुए सुनन्दा ने सखी से कहा-"हे सखी! उस ताम्बूलिक की दूकान पर स्थित उस श्रेष्ठ पुरुष को तुम देखो। कैसा इसका रूप! कैसी वय! कैसी आँखें! किस प्रकार की वस्त्र-आभरण धारण करने की
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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