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________________ धन्य-चरित्र/78 "गौतम स्वामी, सुधर्मा स्वामी, जम्बू स्वामी, प्रभव स्वामी, शय्यम्भव स्वामी-इन सभी युग-प्रधानों के दर्शन आपश्री के दर्शन से हो गये। अहो! आपका निर्जित क्रोध! अहो! मान की पराजयता! अहो! आपकी आर्जवता! हे साधु । अहो! आपका मूर्त्तिमान तप! आज मेरा जन्म कृतार्थ हुआ।" इत्यादि पद्य रूप से स्तुति करके संयम व शरीर का सुख पूछकर यथा-अवग्रह स्थान को आश्रित करके मुनि के संमुख स्थित हुआ। मुनि भी उसमें धर्म-श्रवण की पिपासा जानकर श्री जिनागम-तत्त्व को समझाने के लिए प्रवृत्त हुए-“हे भव्य! यहाँ इस अपार भव-संसार में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय व योग रूप चार कारणों से पीड़ित जीव विविध जाति, कुल, स्थान व योनियों में परिभ्रमण करते हैं। जन्म, जरा, रोग व मरण-इन चार प्रकार के दुःखों से दु:खत हैं। मोह राजा के कुराज्य का निर्वाहक मिथ्यादर्शन नामक मंत्री सभी जीवों को अपनी आज्ञा में प्रवर्तित करने के लिए अविरति, कषाय, योग के विपर्यास रूप मदिरा का पान कराकर उन्हें उन्मत्त करता है। वे जीव उन्मत्त होते हुए न देव को, न गुरु को, न धर्म को, न हित को, न अहित को, न कृत्य को, न अकृत्य को, न स्व को न पर को, न इसलोक को, न परलोक को अर्थात् किसी को भी जानने की इच्छा नहीं रखते। केवल महानिद्रा, भय, मैथुन आदि संज्ञाओं में गाढ़ आसक्त होते हुए संसार को बढ़ाते हैं। इनमें से जो विषय हैं, वे कषायों के साथ क्या-क्या कुकर्म और कुचेष्टा नहीं कराते? जन्म से ही सभी संसारी जीव किसी के द्वारा भी नहीं सिखाये जाने पर भी अपने-अपने शक्ति-ग्राह्य विषयों में आसक्त रहते हैं। आगम में भी विषयों को विष से भी ज्यादा शक्तिशाली कहा गया है। क्योंकि कहा गया है विषयाणां विषाणां च दृश्यते महदन्तरम्। उपभुक्तं विषं हन्ति विषयाः स्मरणादपि।। __ अर्थात् विषय और विष में महान अन्तर है। विष तो खाने के बाद मारता है, पर विषय तो स्मरण-मात्र से मार देते हैं। विष से एक अक्षर-मात्र अधिक विषय किस प्रकार की दुश्चेष्टा करते हैं? तो कहते हैं, कि जो रसना-इन्द्रिय के आसक्त हैं, वे उत्कृष्ट से नव अंगुल-मात्र विषय के पूरण के लिए एकेन्द्रिय आदि से लगाकर पंचेन्द्रिय तक निर्दय परिणति से आकुट्टी हिंसा करते हैं, करके अन्तर्मुहर्त में मरकर नारकी में उत्पन्न होते हैं। जैसे-तन्दुल मत्स्य । अथवा राजगृह उद्यानिका में अपने अन्तराय रूपी कर्मोदय से एक दमड़ी भी अप्राप्त भिक्षुक की तरह अकाम दुर्गति में जाते हुए चिकने कर्म-विपाक का अनुभव करते हुए संसार में घूमते रहते हैं।
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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