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________________ धन्य-चरित्र/41 भोजन कराया। राजा भी उस बनी हुई रसोई को खाकर शीघ्र ही स्वस्थ एवं श्रम रहित बन गया। राजा पंकप्रिय के ऊपर अत्यधिक स्नेहवान बना, क्योंकि अवसरे कृता भोजनादिसेवा यद्वा तद्वापि महाा भवति। अर्थात् अवसर पर की गयी जैसी-तैसी भोजनादि सेवा भी महा-मूल्यवान होती है। तब अति स्नेह धारण करते हुए राजा ने पंकप्रिय से पूछा-“हे पंकप्रिय! तुम निर्जन वन में एकाकी किस कारण से रहते हो? गृहस्थ का वेष और वनवास-ये दोनों बातें एक साथ संगत नहीं बैठतीं। अतः बताओ कि तुम्हारे वन में रहने का कारण क्या है?" तब पंकप्रिय ने कहा-“हे स्वामी। प्राणी अपने ही दोषों से क्लेश-कष्ट को प्राप्त होते हैं। इसमें कोई संशय नहीं है। आत्म-उत्कर्ष को चाहनेवाले प्रायः असम्बद्ध प्रलाप करते हैं। वृथा ही फूलकर कुप्पा हो जाते हैं। वह सब सुनकर मुझे अत्यन्त दुःखकारिणी ईर्ष्या पैदा होती है। सिर की आर्ति के समान अत्यन्त दुःखद इस ईर्ष्या को रोकने में असमर्थ होता हुआ घाव रूपी वाहन से जर्जरित अपने सिर को कूटता था। इस तरह मैं प्रतिदिन लोगों के कूट-वचन को सुनकर सहन करने में अक्षम होता हुआ अपने सिर को कूटने से अत्यन्त दुःखित होता था। तब मेरे पुत्रों ने कहा-हे तात! दूसरों के उत्कर्ष-वचनों को सुनने में अक्षम आपका जन-संकुल नगर में रहना अयुक्त है। अतः आप गहन वन में ही रहें, क्योंकि निर्जन वन में मनुष्यों का अभाव होने से ईष्या सम्भव नहीं होगी। फिर कारण के अभाव में कार्य भी कैसे हो सकता है? इस प्रकार के पुत्रों के वचनों को सुनकर मैंने भी अनुमति दे दी। तब पुत्रों ने इस वन में खाद्य आदि सामग्री से युक्त यह कुटिया मेरे रहने के लिए बना दी है। अब मैं यहाँ सुख से रहता पंकप्रिय के इस प्रकार के वचनों को सुनकर कृपा रूपी महासागर से युक्त मानसवाले दिव्य विक्रम से युक्त राजा भी उसकी दुःख संक्रान्ति से दुखित हो गया। कहा भी है ये बहुश्रुतास्ते परदुःखवा श्रवणेन मनागार्ता भवति। अर्थात् जो बहुश्रुत होते हैं, वे पर-दुःख की बात सुनकर दुःखी हो ही जाते हैं। __जैसे कि समान आश्रय में रहनेवाले कान आँखों में दर्द होने पर पट्टी की व्यथा को सहन करते ही हैं। इसी प्रकार उसके दुःख से दुःखी होते हुए मन में उसके उपकार का स्मरण करते हुए कृतज्ञ जनों के शिखर रूप राजा ने सोचा
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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