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________________ धन्य-चरित्र/423 समृद्धि को तृणवत् मानकर चारित्र ग्रहण को उन्मुख हो गया। यह भी उनका अनुत्तर मान था। चौथा - आज भी इन दोनों के लौकिक व लोकोत्तर यश का पटह जगत में जीवित है, क्योंकि जब कोई भी धन-सम्पदा आदि को प्राप्तकर फूलकर कुप्पा हो जाता है, गर्व करता है, तब अन्य सभ्यजन कहते है-"क्या तुम धन्य या शालिभद्र हो गये हो, जो इस प्रकार के निरर्थक मान को वहन करते हो?" आज तक भी सभी व्यापारी वर्ग दीपावली पर्व पर बही-खाते के मुहूर्त करने के समय सबसे पहले इन दोनों का ही नाम लिखते हैं। ऐसा यश इन दोनों का ही है, अन्यों का नहीं। इसी प्रकार शालि के चार महाश्चर्य हुए–प्रथम मनुष्य भव में ही स्वर्ग के भोग-सुखों को भोगा। दूसरा-घर पर आये हुए राजा को सुख-मग्न शालिभद्र के द्वारा माल के रूप में जानकर दूकान पर खरीदकर रखने का आदेश दिया। ऐसा लीला-शालित्व किसका होता है? तीसरा-स्वर्णरत्न सहित अन्यत्र अप्राप्य – ऐसे वस्त्राभूषण प्रतिदिन साधारण पुष्पमाला आदि की तरह बासी करके उसे कचरे में डाल देता था, यह भी एक आश्चर्य है। चौथा जिसके सम्मुख देखकर राजा 'आओ' इस प्रकार वचन मात्र के मान-सम्मान को देता है, तो वह पुरुष मन में अत्यन्त उग्र रूप से फूल जाता है-"अहो! आज मेरा शुभोदय है, मेरा भाग्य स्फुटित हुआ है" इस प्रकार मन में हर्षित होता है। पर शालिभद्र को तो राजा ने स्वयं परिकर-सहित उसके घर आकर अत्यन्त ज्यादा से भी ज्यादा मान दिया, तो भी शालि ने इसे अपमान रूप मानकर चिंतन किया-"अहो! मैं अधन्य हूँ, मेरे द्वारा पूर्व जन्म में पूर्ण पुण्य नहीं किया गया, इसी कारण मैं राजा का सेवक हूँ। इतने दिनों तक मैं बेकार ही खुश होता रहा कि मैं सबसे ज्यादा सुखी हूँ। पर मेरा यह सारा सुख बिंधी हुई मणि की तरह परवशता के दोष से विफल हो गया। अहो! यह कूट रचना-मय संसार है। यहाँ जो प्रमाद करता है, वह मूर्ख-शिरोमणि है। अतः मैं इस जन्म में मृगतृष्णा जैसे भोगों को त्यागकर स्वाधीन सुख-साधन में उद्यत बनूँगा। इस प्रकार विचार करके समस्त सांसारिक भोग-विलास से उत्साह-हीन हो गया। अन्य लोग तो राजा के सम्मान को प्राप्त करके जीवन में प्रसन्न होते हैं, पर शालि तो सम्मानभ्रष्ट की तरह उदास हो गया। वह भी महान आश्चर्य जानना चाहिए। धन्य व शालिभद्र दोनों में ही दान धर्म का विश्व में अतिशय होने पर
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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