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________________ धन्य-चरित्र/418 शालिभद्र की प्रियाएँ तीर्थेश को नमन करने के लिए चलीं। तब तक अन्तःपुर सहित तथा परिवार सहित श्रेणिक राजा भी निर्मल भाव से हर्षित होता हुआ श्री वीर प्रभु को नमन करने के लिए चला। पाँच–अभिगमपूर्वक भक्ति से भरे हुए अंगों से युक्त सभी जिनेश्वर की तीन प्रदक्षिणा देकर तीन बार पंचांग प्रणिपातपूर्वक नमस्कार करके अपने-अपने उचित स्थान पर बैठ गये। फिर सभी जनों ने पापहारिणी अरिहन्त –वाणी सुनी। भद्रा देशना सुनती हुई इधर-उधर साधु-वृन्द को देखने लगी। पर उनके मध्य धन्य व शालि को न देखकर विचार करने लगी-"गुरु आज्ञा से दोनों कहीं गये होंगे अथवा कहीं पठन पाठन-स्वाध्यायादि क्रिया में व्यस्त होंगे, क्योंकि देशना के समय पास की जगह पर स्वाध्यायादि करने से देशना व्याघात पड़ सकता है। देशना समाप्त होने पर श्रीप्रभु से पूछकर वे जहाँ होंगे, वहाँ जाकर नमन करूँगी और आहार के लिए निमन्त्रित करूँगी।" देशना समाप्त होने पर भद्रा ने अरिहन्त प्रभु की सभा को जामाता व पुत्र से शून्य जानकर श्रीवीर प्रभु से पूछा-"प्रभो! धन्य व शालि मुनि क्यों दिखाई नही देते?" ___ भद्रा के इस प्रकार पूछने पर श्रीवीर प्रभु ने उत्तर दिया-"आज मासखमण के पारणे के दिन मेरी आज्ञा लेकर वे दोनों तुम्हारे आवास-गृह के आँगन में आये। वहाँ आहार प्राप्त न होने पर तुम्हारे आवास से वापस लौट गये। मार्ग में शालिभद्र के पूर्वभव की माता ग्वालिन धन्या ने अति भक्ति के साथ दही से लाभान्वित किया। स्थान पर आकर दोनों ने यथा-विधि दही से पारणा किया। फिर मेरे द्वारा कहे हुए पूर्वभव के स्वरूप को सुनकर वैराग्य रंग से रंजित होते हुए शालि मुनि ने धन्य मुनि के साथ मेरी आज्ञा से अभी ही आधा प्रहर पहले गौतमादि मुनियों के साथ वैभारगिरि पर जाकर यथाविधि पादपोपगमन अनशन स्वीकार किया है।" ऐसा श्रीवीर प्रभु-मुख से सुनकर भद्रा तथा शालिभद्र की प्रियाएँ एवं श्रेणिक, अभयादि वज्राघात की तरह अकथनीय दुःख से सन्तप्त, विदीर्ण हृदय से आक्रन्दन करते हुए वैभार-गिरि को प्राप्त हुए। वहाँ सूर्य के आतप से तपती हुई शिला पर दोनों को सोया हुआ देखकर भद्रा मोह से जमीन पर लुढ़कती हुई मूर्छित हो गयी। शीतल पवनादि के उपचार से होश में लायी हुई बहुओं सहित भद्रा दुःख से आर्त होती हुई दूसरों को भी रूलाती हुई तीव्र स्वर में रोने लगी। बहुत दिनों से किये गये मनोरथ के अपूर्ण होने से वह विलाप करने लगी-“हा! मुझ पापिनी, हीनपुण्या द्वारा सामान्य भिक्षुक की गणना में भी इनको नहीं गिना। मेरे घर से तो कभी भी कोई भी भिक्षु भिक्षा प्राप्त किये बिना खाली हाथ वापस नहीं लौटते, पर मुझ मूढ़ बुद्धि द्वारा तो जंगम कल्पवृक्ष की तरह
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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