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________________ धन्य-चरित्र/405 पराधीन को स्वाधीन मानते है। वे अस्थिर को स्थिर की तरह, परकीय को स्वकीय की तरह, भविष्य में दुःखदायी को सुखदायी मानते हुए, औपचारिक को वास्तविक मानते हुए, बद्ध लालसावाले, उसी में लीन होते हुए बीते हुए काल को नहीं जानते। उसके बाद किसी-किसी के कुशलानुबन्धी पुण्य के उदय से सद्गुरु का संयोग हुआ। तब दुःख के एकमात्र कारण कषायों को सुख–प्राप्त करानेवाले साधन जानते हुए हेय पदार्थों को उपादेय मानते हुए पूर्व संचित पुण्य धन को लूटनेवाले विषय-प्रमाद को अति-प्रिय परम हितैषी मानते हुए विपरीत श्रद्धान वाले सांसारिक जीवों को देखकर उनके निष्कारण परम उपकारी जगत के एकमात्र बन्धु सद्गरू का चित्त करुणा से आर्द्र हुआ। उसके बाद "अहो! ये बिचारे प्रमाद के सेवन में तत्पर चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण न करें" इस प्रकार परम दयाभाव से आर्द्र चित्त द्वारा उन्हें हितोपदेश दिया-"हे भव्यों! ये पाँचों प्रमाद सुख के हेतु हैं- इस प्रकार तुम जानते हो, पर तुम्हारे लिए इनके जैसा बैरी और कोई नहीं है। ये पाँच ही जगत के बैरी मोह राजा के सिपाही हैं। पूर्व में तुम्हारे द्वारा जो चतुर्गति में दुःख प्राप्त किया गया, वह मोह-राजा की आज्ञा से इन्हीं के प्रभाव से प्राप्त किया गया। आगे भी अगर तुम उसी को चाहते हो, तो यथारुचि जो जी में आये, वही करो। पर अगर सुख पाने की इच्छा है, तो इस चारित्र-चिन्तामणि को ग्रहण करो, जिसके प्रभाव से परिवार सहित अनादि शत्रु मोहराज को शीघ्र जीतकर जन्म-जरा-मरण-रोग-शोक आदि समस्त दुःखों से रहित परमानन्द पद को सादि अनन्त स्थिति से प्राप्त किया जाता है। अपुनरावृत्ति के द्वारा अकृत्रिम निरुपाधिक अप्रयास रूप अनन्त शाश्वत सुख का अनुभव किया जाता है।" अतः हे माता मैंने भी परमोपकारी वीर के वचनों से हार्द को जान लिया है, अब मैं वैसा ही करूँगा।" माता ने कहा-"वत्स! चारित्र बहुत दुष्कर है। गहन वन, पर्वत व पर्वत की गुफा आदि में निवास करना होता है। वहाँ तुम्हारी सार सम्भाल कौन करेगा? घर में तो प्रतिक्षण सावधानीपूर्वक सेवकादि यथानुकूल कार्य करते हैं। चारित्र ले लेने पर वहाँ तो कोई नहीं होगा, बल्कि संयम-श्रुत -तप आदि करने पड़ते हैं। वयोवृद्ध आदि की सेवा करनी पड़ती है।" शालिभद्र ने कहा-"माता! वन मे रहनेवाले मृगादि सुकोमल पशुओं की कौन सार करता है? उनसे भी मैं तो पुण्यवान हूँ, क्योंकि परम करूणा से भरे हुए आचार्य उपाध्याय-स्थविर गणावच्छेदक, रत्नाधिक आदि की सहायता से मुझे क्या दुःख हो सकता है? अतः सौ बात की एक बात करता हूँ कि मैं चारित्र तो अवश्य ही ग्रहण करूँगा, इससे कोई सन्देह नहीं है।" यह सुनकर माता ने जान लिया कि इन वचनों से यह निश्चय ही घर का त्याग करेगा। अतः अब तो इस कार्य में देर होती जाये, वैसा ही करना चाहिए। यह
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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