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________________ धन्य-चरित्र/403 मधुर रस को प्राप्त करके रस - लोभियों की जिह्वा में पानी आने लगता है, पर विपाक की कटुता को जानकर विरत व्यक्तियों के तो दृष्टि में जल आ जाता है । इस प्रकार पुनः - पुनः वीर - देशना सुनकर दुगुने हुए संवेगवाला शालिभद्र प्रभु को नमन करके वेगपूर्वक अपने भवन पर आकर, वाहन से उतरकर, घर की ऊपरी मंजिल पर जाकर जहाँ माता थी, वहाँ आकर बोला- "माँ! आज मैं वीर प्रभु की वन्दना के लिए गया । वहाँ मैंने धर्मदेशना सुनी, वह देशना मुझे रुचिकर प्रती हुई ।” माता ने कहा-"तुम धन्य हो ! कृतपुण्य हो ! तुमने बहुत अच्छा किया, पुत्र ! जो तुम श्रीमद् जगन्नाथ को वन्दन करने के लिए गये।" तब शालिभद्र ने कहा- "माता ! उस देशना को सुनकर मेरी अनादिकाल की भव भ्रान्ति दूर हो गयी है । चतुर्गति रूप संसार मुझे सम्यक् प्रकार से दिखाई दे रहा है। अब संसार में मेरा राग-भाव नहीं रहा । वर्तमान में रमणीय लगनेवाले कामभोग अनन्तकाल तक दुःख के हेतु रूप होने से अब मुझे रोचक प्रतीत नहीं होते। इस संसार में जरा-मरणादि दुःख के समय में कोई भी शरण प्रदाता नहीं है। दुष्कर्म के फल - अनुभव के समय एकाकी जीव ही भटकता हुआ उदयगति को प्राप्त होता है । करोड़ों की संख्या में रहे स्वजन व सेवक - वर्ग के होने पर भी जीव अकेला ही जाता है और आता है। शुभाशुभ कर्म - प्रकृति को छोड़कर अन्य कोई भी साथ नहीं जाता है। जब तक जन्म-मरण आदि का भय नहीं जाता, तब तक जीव को सुख नहीं हैं । शहद लिपटी तलवार की धार को चाटने के समान ये विषय मुख में मीठे तथा परिणाम में कठोर होते है । वे विषय शूली, दुर्जन तथा चोर की तरह अवश्य ही दुःख देते हैं। अतः अगर आपकी आज्ञा हो तो जन्मादि समस्त दुःखों के समूह का नाश करने रूप परम औषधि के रूप में चारित्र को ग्रहण करूँ । इस परम पवित्र औषधि द्वारा मेरे जैसे अनंत जीव परमानंद पद को प्राप्त हुए हैं। अतः मुझे चारित्र ग्रहण करने की अनुज्ञा प्रदान कीजिए । " शालिभद्र के इन वचनों को सुनकर स्नेह से ग्रस्त माता मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी। तब दासियों द्वारा शीतल पवनादि के उपचार द्वारा उन्हें होश में लाया गया। फिर वियोग दुःख की कल्पना - मात्र से विदीर्ण हुए हृदय से आक्रन्दन करती हुई माता कहने लगी- "हे पुत्र ! कान में पिघले सीसे को डालने के समान तुमने यह क्या कहा? तुम्हारे व्रत की यह कौनसी बात है ? व्रत तो तुम्हारा अशुभ सोचनेवाले पड़ोसी ग्रहण करेंगे, तुम चारित्र क्यों ग्रहण करो?" तब शालिभद्र ने कहा- "माता ! ऐसा मत कहो । जो चारित्र ग्रहण करनेवाले होते हैं, वे किसी के भी अशुभ चिन्तक नहीं होते। वे तो जगत के जीवों पर मैत्री -भाव को प्राप्त होते हुए सकल जीवों के हितकारक तथा जगत के जीवों द्वारा
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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