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________________ धन्य-चरित्र/399 फल यहीं प्राप्त हो जाता है-यह शास्त्रोक्ति है। इस प्रकार आत्म-निन्दा करते हुए वन-वन में घूमने लगा। फलादि के द्वारा प्राणों को धारण करते हुए कितने ही दिनों तक घूमते-घूमते भद्दिलपुर नामक नगर को प्राप्त हुआ। तब कुमार क्षुधा से पीड़ित होते हुए भिक्षा के लिए नगर में प्रविष्ट हुआ। देखो भव्यों! रूठा हुआ भाग्य क्या नहीं करता? कहा भी है ___ यस्य पादयुगपर्युपासनाद, नो कदापि रमया विरम्यते। सोऽपि यत् परिदधाति कम्बलं तद् विधेरधिकतोऽधिकं बलम्।। जिनके पाद युगल की पर्युपासना से लक्ष्मी से कभी विरमण नहीं होता। वह भी जिस कम्बल को धारण करता है, वह विधि की अधिकता से अधिक बलवाला हो जाता है। अतः विधि बलवान है। उस कुमार ने उसी दिन पर्व होने से एक महेभ्य के घर से सत्तु व गुड़ की भिक्षा प्राप्त की। वह उसे लेकर सरोवर के किनारे गया। वहाँ सत्तु को जल से गीला करके उसमें गुड़ मिलाकर खाने योग्य बनाया। तब कुमार ने विचार किया-"अभी कोई भी अन्न का प्रार्थी आ जाये, तो बहुत अच्छा हो। उसे थोड़ा देकर बाद में मैं खाऊँ। थोड़े से थोड़ा भी हो, तो भी देना चाहिए। यह श्रुति है।' इस प्रकार वह चिन्तन कर ही रहा था कि तभी असीम पुण्योदय से कोई मासखमण के तपस्वी साधु को मार्ग में जाते हुए देखा। वे पारने के लिए गोचरी लेने गाँव में गये थे, वहाँ पहले प्रासुक जल तो मिल गया, पर एषणीय आहार प्राप्त नहीं हुआ। अतः जल मात्र लेकर "नहीं प्राप्त होने पर तप की वृद्धि होती है और प्राप्त होने पर देह की धारणा होती है" इस प्रकार विचार करते हुए एकमात्र समता में लीन संतोष रूपी अमृत का भोजन करते हुए मुनि नगर से बाहर जा रहे थे। उन्हें देखकर कुमार मन ही मन अत्यन्त प्रसन्न होते हुए विचार करने लगा-"अहो! आज भी मेरा भाग्य जागृत है, जो यह अतर्कित मूर्तिमान धर्म की तरह साधु जी पधारे हैं। यह विचारकर सात-आठ पाँव सम्मुख जाकर कहा अद्य पूर्वसुकृतं फलितं में, लब्धमद्य प्रवहणं भववाौँ । अद्य चिन्तितमणि: करमागाद, वीक्षितो यदि भवान् मुनिराजः।। "आज मेरे पूर्वकृत सुकृत फलित हुए हैं। भव-समुद्र में आज मुझे तिरानेवाला यान प्राप्त हुआ है, आज मेरे हाथ चिंतामणि रत्न आया है, क्योंकि आज मैने आपके दर्शन पाये हैं। आज मुझ अनाथ को परम नाथ मिल गये हैं। हे करूणा-सागर! मुझ करूणा-पात्र पर कृपा करके पात्र फैलायें, यह निर्दोष पिण्ड ग्रहण करें और मेरा निस्तार करें।" इस प्रकार कहते हुए समग्र पिण्ड उठाकर हाथ में लेकर साधु के आगे खड़ा हो गया। तब साधु ने भी एषणीय जानकर कहा-"देवानुप्रिय! अल्प ही प्रदान
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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