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________________ धन्य-चरित्र/32 के चावल तथा नींबू से मिश्रित, समुद्री नमक से मिश्रित मूंग तथा नगर-जनों की प्रीति के लिए पीली तुवर की दाल परोसी गयी। फिर अत्यधिक खूशबूदार खूब सारा घी तथा अठारह प्रकार के संस्कारों से संस्कारित विभिन्न व्यंजन यथास्थान परोसे गये। फिर सुन्दर स्त्रियों ने हास्य के संरम्भ की तरह मिश्र गंधवाला दही परोसा। इस प्रकार विविध भोजन युक्तियों से प्रसन्न होते हुए सभी स्वजन तथा ज्ञातिजन धन्य के गुणों की प्रशंसा करते हुए अपने-अपने घर चले गये। उसके बाद बचे हुए द्रव्य का व्यय करके सभी भाभियों के लिए विविध आभरण भेंट किए। जैसे-हार-अर्धहार, तिलड़ा, पंचलड़ा, सतलड़ा, नवलड़ा, अठारहलड़ा आदि तथा दूसरे कनकावलि, रत्नावलि, मुक्तावलि प्रमुख कमर-कन्दोला, कानों के झुमके व हाथों के सुन्दर-सुन्दर आभूषण करवाकर अर्पित किये। सब भाभियाँ प्रसन्न होती हुई देवर को बोलीं-"हे देवर! हमारे पूर्वकृत पुण्य के कारण ही तुमने अवतार लिया है। अहो! तुम्हारी सौभाग्य रचना! कैसा अद्भुत भाग्य! अहो! लक्ष्मी के उपजाऊ बीज की तरह तुम्हारा वाणिज्य कौशल है। अहो! सर्व क्रियाओं में निपुण होते हुए भी तुम्हारी मृदुता! अहो! लघु वय में भी तुम्हारी गति बड़ों के लिए अनुकरणीय है। हे देवर! तुम चिरकाल तक जीओ। चिरकाल तक प्रसन्न रहो। चिरकाल तक जय प्राप्त करो। चिरकाल तक हमारा पालन करो। चिरकाल तक स्वजनों को खुश करो। चिरकाल तक अपने सच्चरित्र से निज वंश को पवित्र करो।" इस प्रकार अपनी पत्नियों द्वारा अत्यधिक व अद्भुत गुण-स्तुति करते हुए सुनकर धनदत्त आदि तीनों बड़े भाई ईर्ष्या से जल-भुन गये। तब पिता ने उनके मत्सर-भाव को जानकर पुत्रों से कहा-'हे पुत्रों! तुम गुणों में मत्सर भाव रखते हो, यह साधु-जनों के योग्य नहीं है। शास्त्र में भी कहा है ज्वालामालासकुले वह्नौ निहितं स्वशरीरं वरं युक्त। परन्तु गुणसंपन्ने पुरुषे स्वल्पमति मात्सर्यकरणं न युक्तं ।। ज्वाला की लपटों से घिरी हुई अग्नि में अपने शरीर को जलाना युक्त है, पर गुण-सम्पन्न पुरुष में थोड़ी भी मात्सर्यता करना युक्त नहीं है। जो पुण्यहीन होते हैं, वे पुण्य से आढ्य पुरुष की यशोग्नि के अतिशय से जलते हुए भाग्य-हीन होकर उसके पथ पर चलने में असमर्थ होते हुए पग-पग पर स्खलित होते हैं। जिन गुणियों द्वारा सम्पूर्ण भूतल दूर रहते हुए भी भूषित है, पृथ्वीतल जिनके गुणों से मण्डित है, उनमें पुनः जिनका गुणानुराग होता है, वे पुरुष भी तीन जगत में पूज्य होते हैं। हे पुत्रों! गुणों से द्वेष करने से पूज्य भी अपूज्य हो जाता है तथा
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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