SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य - चरित्र / 369 अतः मेरी ऐसी इच्छा होती है कि मैं दरिद्रता को जला डालूँ ।" यह सुनकर धर्मदत्त प्रसन्न होता हुआ बोला - "कहिए, आप दरिद्रता का नाश कैसे करेंगे?" योगी ने कहा-“स्वर्ण - पुरुष को साधूँगा ।” धर्मदत्त ने सोचा- "अगर जीव हिंसा के बिना स्वर्ण पुरुष साधे, तो अच्छा होगा । अन्यथा ठीक नहीं होगा ।" ऐसा विचारकर कहा-"हे योगीराज ! पहले सुना है कि स्वर्ण पुरुष जीववध से निष्पादित होता है, वह सत्य है या नहीं?" उसके कथन को सुनकर 'हाय ! धिक्कार है, हाय! धिक्कार है" इस प्रकार कहकर थूथू करते हुए कहा तत् श्रुतं यातु पाताले तच्चातुर्य विलीयतान् । विशन्तु गुणा वह्नौ यत्र जीवदया न हि । । 1 । । उसका शास्त्र पाताल में चला जाये, उसकी चातुर्यता विलीन हो जाये, उसके गुण अग्नि में प्रवेश कर जायें, जिसमें जीवदया नहीं है। ददातु दानं विदधातु मौनं, वेदादिकं वाऽपि विदाङ्करोतु । दैवादिकं ध्यायतु नित्यमेव, न चेद् दया निष्फलमेव सर्वम् ।।2।। दान देवे, मौन धारण करे, वेदादि का ज्ञाता हो, नित्य ही देवादि का ध्यान करे, पर अगर दया नहीं है, तो सब कुछ निष्फल है ।" पुनः वह योगी वीणा हाथ में लेकर उसे बजाते हुए लोक भाषा में गोरख - वाक्य गाने लगा । कंध जगोटी हाथ लंगोटी, ए नहिं योगी मुद्रा । जीवदया विणुं धर्म नहिं रे, करे पाखंडी मुद्रा ।। जंपे गोरख सुण रे बाबू अथिर एह संसार असारा, देखत सब जग जाई । पुत्र कलत्र परिवारे मोह्यो, मरणने देखे नांई ।। जंपे गोरख सुण रे बाबू भारवहो कांई जटा जनोई, विण दया धर्म न कोई । जीवदया तुम पालो बाबू! हियडें निर्मल होई ।। जंपे गोरख सुण रे बाबू सोनांके पुरुसा क्या कीजे ? जो नहि दया - प्रधान ! तिण सोनां पहिरें क्या माचे? जिणसे तुटें कान ।। जंपे गोरख सुण रे बाबू गोरख जंपे सुणरे बाबु म गणिस आप पराया । जीवदया इक अविचल पालो, अवर धर्म सवि माया ।। जंपे गोरख सुण रे बाबू कन्धे पर झोली, हाथ में लंगोटी रखना योगी की मुद्रा नहीं है, क्योंकि जीवदया के बिना धर्म नहीं है। ऐसी मुद्रा तो पाखण्डी की होती है। यह संसार तो अस्थिर है- असार है । जग में सब देखते ही देखते चले जाते हैं | स्त्री- पुत्र - परिवार के मोह में मरण को देख ही नहीं पाता ।
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy