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________________ धन्य-चरित्र/367 मेरुपर्वत पर सूर्य चोटी को पवित्र कर रहा है, हे सुनयने! रात्रि बीत गयी है। अब उठो।" पर वह हुंकार मात्र भी नहीं देती। क्षण–भर प्रतीक्षा करने के बाद वह पुनः कहता हैएते प्रजन्ति हरिणास्तृणभक्षणाय, चूर्णि विधातुमथ यान्ति ही पक्षिणोऽपि। मार्गस्तथापि सुवहः किल शीतलः स्याद्, उत्थीयतां प्रियतमे! रजनी जगाम।।1।। ये हरिण घास चरने के लिए जाते हैं, दाना-पानी चुगने के लिए पक्षी भी आकाश में चल पड़े हैं। मार्ग भी चलने योग्य व शीतल ही होगा, हे प्रियतमा! रात्रि बीत गयी है, अब तो उठो। फिर भी वह कुछ नहीं बोलती। तब वह सम्मुख आकर देखने लगा, तो उसने अपनी पत्नी को वहाँ नहीं पाया। वह विचारने लगा-वह कहाँ गयी? क्या वह पहले उठकर लघु-शंका आदि के निवारण के लिए गयी है? क्षण-भर प्रतीक्षा करने के बाद उसने आवाज दी हे प्रिये! यहाँ आओ। यहाँ आओ, पर जब नहीं आयी, उठकर चारों ओर देखा, पर कहीं भी वह दिखायी नहीं दी। उसके पाँवों के निशान तक नहीं दिखायी दिये। वह अत्यन्त चिन्तित हो गया। वन में घूम-घूमकर थक गया। पर कहीं भी नहीं मिली। तब पत्नी के वियोग से दुःखित होते हुए कहने लगा-हे हंस! हे मयूर! हे हरिण! हे चम्पक! हे अशोक! हे सहकार! मेरी प्रिया के कुछ तो समाचार दो। इत्यादि स्नेह से व्याकुल होकर बोलता हुआ पुनः-पुनः आकर शयन के स्थान को देखता है, क्योंकि जगत में मोह दुर्जेय है। इस प्रकार मोहग्रस्त होता हुआ इधर-उधर घूमता है और सोचता है यन्मनोरथशतैरगोचरं, यत् स्पृशन्ति न गिरः कविरपि। स्वप्नवृत्तिरपि यत्र दुर्लभा, लीलयैव विदधाति तद् विधिः ।।2।। देशाद्देशान्तरं यातु पुण्य-पापमयः पुमान्। पुरः किचिंत् प्रतीक्षन्ते सम्पदो विपदोऽपि च।।2।। जो सैकड़ों मनोरथों से भी अगोचर है, जिसे कवि की वाणी भी स्पर्श नहीं कर पाती, जो स्वप्न में भी दुर्लभ है, उसे विधि क्षण भर की लीला में रच देती है।।1।। पुण्य व पाप से युक्त पुरुष देश से देशान्तर भी चला जाये, वहाँ भी सम्पदा या विपदा प्रतीक्षा करती हुई मिलती है।।2।। यह विचारकर 'घर को जाऊँगा” ऐसा चिन्तन करके चन्द्रपुर पहुँचा। जैसे नगर-द्वार में प्रवेश करने लगा, वैसे ही मन में विचार उत्पन्न हुए-हे मूढबुद्धि धर्मदत्त! क्या करते हो? कहाँ जा रहे हो? पहले ही पूर्व में तुमने भोग-लम्पट होकर पिता के धन का नाश किया है। अहो! तुम्हारी मूढ़ता! माता-पिता का मरण भी तुमने
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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