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________________ धन्य-चरित्र/358 खत्म हो जाने के बाद पीहर व ससुराल पक्ष के गहने आदि भेजती रही। उनके भी खत्म हो जाने पर चाँदी, ताम्बे आदि के पात्र प्रेषित किये, क्योंकि कुलीन स्त्री पति की प्रीति का त्याग नहीं करती। कहा भी है : पगुमन्धं च कुब्जं च कुष्ठिनं व्याधिपीडितम्। निःस्वमापद्गतं नाथं न त्यजेत् सा महासती।।1।। पंगु को अंधे को, कुबड़े को, कोढ़ी को, रोग पीड़ित को, निर्धन को तथा आपत्ति को प्राप्त हुए पति को जो न छोड़े, वही महासती है। उधर अक्का ने पात्र देखकर जान लिया कि इसके घर का धन खाली हो गया है। अतः अब इसे यहाँ से निकाल देना चाहिए। इस प्रकार विचार करके दासियों को सिखाया कि यह अब निर्धन हो गया है, अतः धूल निकालने के बहाने तुम लोग इसे निकाल दो। दासी ने भी घर की साफ-सफाई करने के समय धर्मदत्त से कहा-"आप बाहर के प्रदेश में बैठें। यहाँ से सफाई करनी है।" यह सुनकर कुमार बाहर जाकर बैठ गया। दासी ने भी शयनगृह साफ करने के बाद झाडू से धूल कुमार के सिर पर डाल दी। तब कुमार ने क्रोधित होते हुए दासी से कहा-हे कुटिला! क्या मैं तुम्हे यहाँ बैठा हुआ दिखाई नहीं देता? क्या तुम्हारी दृष्टि में अंधता आ गयी है? दासी ने कहा-मेरी दृष्टि में तो अंधता नहीं आयी है, पर आपके हृदय में अंधापन आ गया है-ऐसा दिखाई देता है, क्योंकि निर्धन पुरुष वेश्या के घर में विलास की इच्छा करता है, वह हृदयान्ध है। कल तुम्हारे घर से भाजन आये, वे तुमने नहीं देखे? अतः अब यहाँ रहने की आशा करना निष्फल है। जहाँ इच्छा हो, वहाँ चले जाओ। अब यहाँ रहने का आग्रह कोई नहीं करेगा, क्योंकि कहा है वृक्षं क्षीणफलं त्यजन्ति विहगाः शुष्कं सर: सारसा, निर्द्रव्यं पुरुषं त्यजन्ति गणिका भ्रष्टं नृपं मन्त्रिणः। पुष्पं पर्युषितं त्यजन्ति मधुपा दग्धं वनान्तं मृगाः, सर्वः कार्यवशाज्जनोऽभिरमते तत् कस्य को वल्लभः? ||1|| वृक्ष के फलहीन हो जाने पर पक्षी उसे छोड़ देते हैं, तालाब के सूख जाने पर सारस उसका त्याग कर देते हैं। धन-रहित पुरुष को गणिका त्याग देती है, भ्रष्ट राजा को मंत्री त्याग देते हैं। पुष्प के मुरझा जाने पर भौंरे उसको छोड़ देते हैं, जलते हुए वन को मृग छोड़ देते है। सभी वस्तुएँ कार्यवश ही सभी को प्रिय लगती हैं। अतः कौन किसका प्रिय है? इसलिए यह जानकर अब तुम यहाँ से चले जाओ।" ___ यह सुनकर धर्मदत्त उदास हो गया। वेश्या के घर से निकलता हुआ विचार करता है कि हाय! धिक्कार है वेश्या के स्नेह को, क्योंकि : अधममध्यमनें तेडें अर्थ लेति नजेडे, तरुणमन खेडें एकस्यूं एक भेडें ।
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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