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________________ धन्य-चरित्र/345 वीतरागसदृशो न हि देवो, जैन धर्मसदृशो नहि धर्मः। कल्पवृक्षसदृशो न हि वृक्षः, कामधेनुसदृशी न हि धेनुः ।।1।। ___ "वीतराग के सदृश कोई देव नहीं है, जैन धर्म के सदृश कोई धर्म नहीं है, कल्पवृक्ष के सदृश कोई वृक्ष नहीं है ओर कामधेनु के सदृश कोई गाय नहीं है। अतः तुम जैन धर्म का दृढ़ता के साथ पालन करो।" मित्र के वचनों को मानकर उसने श्रावक-धर्म अंगीकार किया। तीनों वेला में वह जिन-पूजन करता था। उभयकाल सामायिक प्रतिक्रमण करता था। प्रतिदिन पंच-परमेष्ठी महामन्त्र का स्मरण करता था। सातों क्षेत्र में अपने धन का खर्च करता था। दीन-हीन जनों का उद्धार करता था। इस प्रकार करते हुए छ: मास व्यतीत हो गये। तब एक दिन शय्या पर सोते हुए पिछली रात्रि को जागृत होकर विचार करने लगा- "अहो! जैन धर्म का पालन करते हुए भी इष्ट-फल की सिद्धि नही हुई। क्या यह धर्म भी निष्फल है?" । इस प्रकार चिन्तन कर ही रहा था, तभी शासन देवी ने कहा-'हे मूर्ख ! प्राप्त फल को मत हार | धर्म में शंका मत कर। क्योंकि - आरंभे नत्थि दया, महिलासंगेण नासए बंभ।। संकाए सम्मत्तं, पव्वज्जा अत्थगहणेण।। आरम्भ करने में दया का नाश होता है। स्त्री-संसर्ग से ब्रह्मचर्य का नाश होता है, शंका से सम्यक्त्व का नाश होता है और धन ग्रहण करने से साधुता का नाश होता है। और भी, धम्मो मंगलमुत्तमं नरसुरश्रीमुक्ति-मुक्तिप्रदो, धर्मःपाति पितेव वत्सलतया मातेव पुष्णाति च। धर्म: सद्गुणसंग्रहे गुरुरिव स्वामीव राज्यप्रदो, धर्मः स्निह्यति बन्धुवत् दिशति वा कल्पद्रुवद् वाञ्छितम्।। धर्म उत्तम मंगल है, मनुष्य व देव-सम्बन्धी उत्कृष्ट भोगों को तथा मुक्ति को प्रदान करनेवाला है। धर्म पिता की तरह रक्षा करता है और माता की तरह वात्सल्यपूर्वक रक्षण करता है। धर्म सदगुणों के संग्रह में गुरु की तरह है तथा स्वामी की तरह राज्य को देनेवाला हैं। धर्म बन्धु की तरह स्नेह करनेवाला है और कल्पवृक्ष की तरह वांछित वस्तु देनेवाला है। अतः हे विचारमूढ! अगर अन्य दीन-हीन आदि के उद्धार आदि लौकिक कार्य रूपी व्यवहार धर्म भी निष्फल नहीं होते, तो अगणित पुण्यों द्वारा प्रप्त कर सकने योग्य लोकोत्तर, सर्वज्ञ वीतराग द्वारा भाषित धर्म की आराधना निष्फल कैसे हो सकती है? कभी नहीं। तुम्हारे गुणों से युक्त पुत्र होगा, पर तुमने जिनधर्म में शंका
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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