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________________ धन्य-चरित्र/331 तब संदेश-वाहक पुरुषों ने कहा-"स्वामी को घर पर आमंत्रित करने की खुशी में भक्ति-पूर्वक भद्रा ने ही यह सब करवाया है। यह तो कुछ भी आश्चर्य नहीं है। आगे तो अनिर्वचनीय सजावट की हुई है। उसे तो जिसने देखा है, वही जानता है, क्योंकि मुख से तो यथार्थ रूप से कहना शक्य नहीं है।" मार्ग में जैसे-जैसे आगे बढ़ते गये, वैसे-वैसे, नये-नये तथा अदृष्टपूर्व अनिर्वचनीय शोभा देखने को मिली। क्षण-क्षण में सैनिक कौतुक से आकर्षित चित्तवाले होकर चित्रलिखित से रह जाते थे, उनके कदम आगे ही नहीं बढ़ते थे। अगर कोई आकर उन्हें प्रेरित करता कि "आगे चलो। इससे भी सुन्दर शोभा रची हुई है।" तभी उसके कदम उठते थे। पुनः आगे चलते हुए फिर किसी अद्वितीय रचना को देखकर स्तम्भित होकर एकटक देखते हुए मनुष्य देवों के समान हो जाते थे। राजा श्रेणिक भी हाथी पर आरूढ़ हुए इधर-उधर जहाँ भी दृष्टि डालते थे, वहाँ-वहाँ निरुपम, अभूतपूर्व रचना को देखते हुए अत्यधिक आश्चर्य-युक्त हो रहे थे। एक ओर देखते, तो दूसरी तरफ का दृश्य गौण हो जाता था, तब सेवक कहते-"महाराज! इधर भी दृष्टिपात करें, कितना सुन्दर व दर्शनीय दृश्य है।" जब राजा चेहरे को तिरछा करके उस ओर दृष्टि डालते, तब तक अन्य सेवक कहता-"महाराज! आगे का कौतुक देखिए।" तब राजा पुनः मुँह आगे करके आगे के दृश्य देखने लगते। इस प्रकार क्षण-क्षण में फटी हुई आँखों से गोभद्र देव निर्मित शोभा को देखते हुए बार-बार आश्चर्य-निमग्न नेत्रों को चौड़ा करके इधर-उधर देखते हुए राजा विभ्रमित हो गये। "किस प्रकार इन सबकी रचना की गयी होगी?" इस प्रकार पग-पग पर शंकित होते हुए पुनः-पुनः आगे अभिनव आश्चर्यों को देखते हुए और ज्यादा बुद्धि लगाकर विचार करने लगे, पर इस रचना के निर्माण के रहस्य को नहीं समझ पाये। इस प्रकार के लीला-वैभव को देखकर विचार करने लगे-"क्या यह सत्य है या स्वप्न है या इन्द्रजाल है? इस प्रकार की आश्चर्यकारी वस्तुएँ किसने बनायी? किस रीति से बनायी? किन द्रव्यों से बनायी? ये वस्तुएँ अधर में कैसे झूल रही हैं? अहो! पुद्गलों की विचित्रता! जिनमत के बिना अन्य कौन इसके रहस्य को जान सकता है? अतः जिनवचन ही सत्य है, क्योंकि आगम में भी कहा गया है-जीवों की गति की विचित्रता, पुद्गलों की पर्यायों के आविर्भाव-तिरोभाव की विचित्रता, कर्मों के बंध व उदय की विचित्रता के रहस्य को जिनेश्वर या जिनागम ही जान सकते हैं, अन्य नहीं। अतः वे दोनों ही सत्य हैं।" इस प्रकार विचार करते हुए स्थान-स्थान पर नवरचना को, मण्डप, मण्डप के स्तम्भ की लकड़ी में खोदी हुई नृत्य करती पुतलियाँ आदि महा-आश्चर्य को देखते हुए" क्या ये सचतेन हैं या अचेतन? अथवा साक्षात देवियाँ है? इस प्रकार बार-बार विचार करते हुए, पुनः जिनागम ज्ञान को सत्य मानते हुए, हर्षित होते हुए "अगर मैं इसके घर न आया होता, तो इन विचित्र अदृष्टपूर्व कौतुकों को कैसे देखता?" इस प्रकार प्रसन्नता की विचारणा करते हुए, परिषदा के
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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