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________________ धन्य - चरित्र / 319 कार्य में विलम्ब मत करो। " तब परिग्रह का त्याग करके धनसार ने पत्नी व तीनों अग्रज पुत्रों के साथ प्रव्रज्या अंगीकार की । पत्नियों सहित धन्य ने आचार्य व पितादि मुनियों को नमन करके कर्म का विनाश करनेवाले श्रावक-धर्म का स्वीकार किया और अपने घर को लौट आया। मुनि - कथित पूर्वभव के दानधर्म को स्मरण करते हुए विशेष रूप से धर्म-प्रवृत्ति करने लगा । नये मुनि बने हुए अपने माता-पिता भाइयों आदि को तप मे विशेष रत देखकर उनकी बार-बार स्तुति करते हुए सुखपूर्वक पुण्य के विपाक का भोग करते हुए काल का निर्गमन करने लगा । हे भव्यों ! मुनि को दिये जानेवाले दान-धर्म के फल की महिमा को जानो। धन्य जहाँ-जहाँ भी गया, वहाँ-वहाँ उसे भोग - सामग्री सर्वोत्कृष्ट रूप में प्राप्त हुई । बिना बुलाये हुए भी देवों के द्वारा धन्य के अग्रजों से धन्य को धन छीनकर उन्हें रोका गया। शिक्षा देकर उन्हें अनुकूल किया गया। इस प्रकार बड़े भाई भी न्याय -मार्ग को प्राप्त हुए । इसलिए इहलोक और परलोक में सुख के अभिलाषी लोगों को जिनेश्वर द्वारा कथित दानधर्म में उद्यत होना चाहिए, जिससे सकल अर्थ की सिद्धि होवे । ।। इस प्रकार आठवाँ पल्लव भी समाप्त हुआ ।। नवम पल्लव एक बार कुछ व्यापारी नेपाल देश में होनेवाले एक-एक लाख मुद्रा के मूल्यवाले रत्नकम्बलों को लेकर राजगृह नगर में बेचने के लिए आये । 'राजभोग्यं वस्तु' जानकर श्रेणिक राजा को नमन करके उन्हें रत्न - कम्बल दिखाये और विनति की—“स्वामी! ये रत्न- कम्बल तीनों ही ऋतुओं में ओढ़ने के काम में आते हैं। वर्षाकाल में इस रत्न - कम्बल के तन्तु परस्पर अत्यन्त सम्मिलित हो जाते हैं, जिससे इन पर वर्षा का जल गिर जाने पर भी वह उससे नहीं छनते हुए भूमि पर गिर जाता है, पर शरीर का रोममात्र भी नहीं भीगता । रत्न - कम्बल स्वयं भी निरुपलेप रहती है। शीतकाल में और हेमन्त ऋतु में ये उष्णता को प्राप्त हो जाते हैं। एक ही लपेटे में शरीर से पसीना आने लगता है। उष्णकाल की गर्मी में शीतलता को प्राप्त कराती है । जब यह देह पर धारण की जाती है, तब चन्दन के लेप के समान शीतलता प्राप्त कराती है। यह कम्बल मैली हो जाने पर अग्नि में डालने पर जात्य सुवर्ण की तरह उज्ज्वलता को प्राप्त हो जाती है । इसीलिए वस्त्रों में यह रत्न के रूप में विख्यात है ।" राजा ने पूछा - "इसका मूल्य क्या है ?"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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