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________________ धन्य - चरित्र / 23 था, जो चन्द्र के समान उज्ज्वल गुणवाला था । ये तीनों ही पुत्र दान, मान, भोग आदि गुणों से समन्वित थे । उन तीनों के क्रमशः धनश्री, धनदेवी एवं धनचन्द्रकांता नाम की पत्नियाँ थीं, जो गुणों से युक्त थीं। इस प्रकार वे सुखों का अनुभव करने लगे। धनसार ने अपने पुत्रों को समर्थ जानकर अपने घर का भार उनके कंधों पर डाल दिया। स्वयं धर्म करने में तत्पर बना । वह प्रतिदिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर पाप से विमुक्ति पाने के लिए सकल - - श्रुतों के सार रूप पंच परमेष्ठि नमस्कार महामंत्र का जाप करता था । दोनों संध्या में प्रतिक्रमण करता था । त्रिसंध्या में जिन-अर्चना विधिपूर्वक करता था। दिन व रात के दरम्यान वह सात चैत्यवंदन करता था । प्रतिवर्ष वह हर्षपूर्वक श्री तीर्थयात्रा व रथयात्रा का महा - महोत्सव करता था । यथा - अवसर सुपात्र - दान, अनुकम्पा दान आदि का पोषण करता था । प्रतिदिन बढ़ती हुए श्रद्धा से वह शास्त्र-श्रवण तथा गुरु उपासना करता था । इस प्रकार एक चित्त से धर्म में रमण करते हुए वह गृहस्थ धर्म का पालन करता था । इस प्रकार उस दम्पत्ति को बढ़ती हुई सम्पदा के साथ यथेच्छा - पूर्वक वैषयिक - सुख भोगते हुए चौथे पुत्र रूपी सम्पदा की प्राप्ति हुई । उस बालक की नाभि-नाल की स्थापना के लिए जब भूमि खोदी गयी, तो उस भूमि से स्वर्ण निधान निकला। धनसार ने उस निधान को देखकर विचार किया - यह बालक किसी अतुल पुण्य की निधि दिखायी देता है । पैदा होते ही पूर्ण निधान की प्राप्ति में कारणभूत बना है। इसी कारण से उस बालक का गुण निष्पन्न नाम धन्यकुमार स्थापित किया गया । पाँच धायों द्वारा लालन-पालन किये जाते हुए दूज के चाँद की तरह वह सौभाग्य व शरीर से वृद्धि को प्राप्त होने लगा । पिता के हृदय के मनोरथों को नयी-नयी अठखेलियों से पूर्ण किया। इस प्रकार बढ़ता हुआ वह आठ वर्ष का हो गया। तब पिता ने अध्ययन का समय जानकर शुभ दिन में महोत्सवपूर्वक कला ग्रहण करने के लिए लेखशाला में भेजा । उस कुमार ने पूर्व पुण्य के अनुभाव में लीला - मात्र में ही सकल कलाओं को ग्रहण कर लिया। अध्यापक साक्षी - मात्र ही सिद्ध हुआ । समस्त शास्त्र रूपी पर्वत पर आरोहण करने के समान पद्य के अनुरूप शब्द - शास्त्र को कण्ठस्थ किया। प्रमाण आदि न्याय शास्त्रों में प्रवीण धुरा को वहन किया । शृंगार रस के शास्त्रों में तात्पर्य अर्थ का वेत्ता हुआ । कवित्व कलाओं में कुशल होकर पूर्व कवियों द्वारा रचित काव्यों में दूषण - भूषण आदि को प्रकट करता था। साहित्य में स्वच्छ मति द्वारा अवसरोचित वचन कहता हुआ वंचित नहीं होता था। पुराण
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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