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________________ धन्य-चरित्र / 300 भोजन कर लो। तब दुर्गतपताका भोजन के लिए बैठा । गृहपति ने भी अपनी बहन का आज्ञाकारी जानकर प्रसन्नतापूर्वक अत्यधिक सरस सुखभक्षिका आदि भोजन करवाया । दास ने भी बहुत दिनों से इच्छित रुचि के अनुसार भव्य भोजन प्राप्त करके चित्त की प्रसन्नतापूर्वक आकण्ठ भोजन किया । भोजन के बाद ताम्बूल आदि का आस्वादन करके पुनः सेठानी के साथ घर आ गया। उन्हें घर पर छोड़कर अपनी झोंपड़ी में चला गया। वहाँ आराम करते हुए दान-धर्म की अनुमोदना करने लगा। भोजन अति-मात्रा में करने से उसी रात्रि में उसे अर्जीण हो गया। रात्रि के प्रथम प्रहर में उसे विसूचिका हुई। महती वेदना के अनुभव से पराभूत होता हुआ चिन्तन करने लगा - "यह प्राणों का हरण करनेवाली वेदना प्रकट हुई है। यह अवश्य ही प्राण ले लेगी।" इस प्रकार निश्चित करके उसने विचार किया - "इस भव में मेरे द्वारा केवल पर की ही सेवा की गयी। दूसरों के द्वारा कहे हुए कार्यों को करते हुए मैंने पापों का ही अर्जन किया है, कुछ भी सुकृत नहीं किया, जो मेरे साथ आये। बस एक बार ही मुनि को दान दिया । अन्य कुछ भी पुण्य का उपार्जन नहीं किया । धन्य हैं वे इभ्य, जो नित्य ही मुनि को दान देने के लिए यत्न करते हैं । मैंने तो आजन्म तक एक ही बार दिया, वह मुझे सफल होवे, उन्हीं मुनि का मुझे शरण हो । " इस प्रकार का ध्यान करते हुए वह मर गया। मरकर उसी सेठानी की कुक्षि में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । कुमार वय प्राप्त होने पर मुझे पूर्व में अनुभूत घर, वस्तुएँ, मनुष्यादि को देखकर जातिस्मरण ज्ञान हुआ । चूंकि महर्षि को दान देने के फल से ही मैं इस घर का स्वामी हुआ हूँ, इसीलिए मैं कहता कि "दाणं जो दिन्नं मुनिवरह" इत्यादि ।” इस प्रकार धनदत्त के कथन को सुनकर चमत्कृत होते हुए भोगदेव विचार करने लगा- " अहो ! केवलि श्रीगुरु का ज्ञान ! अहो ! संसार का प्रतिबोध–दायक स्वरूप ! अहो ! साधु - दान का महाफल! अहो ! संचयशील की मूढ़ता व कृपणता ।" इस प्रकार संसार भावना के द्वारा केवली के प्रवचन में विश्वास उत्पन्न हुआ। दान में अत्यधिक आदर भाव हुआ । तब भोगदेव ने भोगवती से - "सुभगे ! केवली - वचनों पर विश्वास और दृढ़ हुआ है । यद्यपि जगत की स्थिति परावर्तनीय है, फिर भी केवली के वचन कभी अन्यथा नहीं होते ।" 1 अब एक दिन कोई गणधर नामक अतिशय ज्ञानी साधु संचयशील के घर में प्रविष्ट हुए। उनके द्वारा वह धनदत्त कुमार दोहे को गाते हुए व नृत्य करते हुए देखा गया। अतिशय ज्ञानी मुनि ने अपने ज्ञान से सम्पूर्ण घटना को
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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