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________________ धन्य-चरित्र/298 जायेंगे। किसी भी प्रकार के भाग्योदय से दान का योग सफल हो, तो मैं इस सुख को राज्य-प्राप्ति की तरह मानूँगा। पर मेरा ऐसा भाग्य कहाँ? पुण्यहीन होने से मेरा यह मनोरथ ही अयोग्य है। इस प्रकार बीच-बीच में जब-जब महेभ्यों के घर साधुओं को देखता था, तब-तब इसी प्रकार के मनोरथ करता था। अपने आप की निंदा करता था। इस प्रकार भावना भाते हुए कितना ही समय बीत जाने के बाद बहुत से लोगों के घरों में विवाह आदि विधि उत्सव आये। एक दिन दुर्गतपताका एक परिचित के घर के आगे से निकला। तब उस घर के स्वामी ने उसे देखकर और बुलाकर कहा-“हे दुर्गपताका! तुम्हे भोजन के लिए निमंत्रित करता हूँ। पर तुम्हारा मालिक इसे स्वीकार नहीं करता। वह सोचता है कि यदि आज सेवक को भोजन के लिए आज्ञा दूँगा, तो मेरे घर पर भी अवसर आने पर इसके सेवक को भोजन के लिए निमंत्रित करना पड़ेगा। इस आशय से तुम्हारा सेठ भोजन के लिए तुम्हें मेरे घर पर नहीं भेजता। तुम्हारे साथ तो मेरा स्नेह है। अतः इस सुख से खाये जानेवाले इस भक्ष्य को ग्रहण करो। चित्त की प्रसन्नता से इसका आस्वाद लो।" यह कहकर स्नेहपूर्वक सुखपूर्वक भक्षण योग्य पदार्थ खाने के लिए दिये। उन्हें लेकर वह निकल गया। मार्ग में उस अद्भुत भोज्य-पदार्थ को देखकर विचारने लगा-"अहो! आज मेरे मनोरथ को पूर्ण करने का अवसर है। यह आहार दोष-रहित, प्रशस्त व शुद्ध है। पर मेरा ऐसा भाग्य कहाँ है कि इस अवसर पर साधु का संयोग होवे और मैं भक्तिपूर्वक साधुओं को दूँ? साधु भी कृपा करके मेरे दिये हुए को ग्रहण करे। इस प्रकार की याचित मेघ-वृष्टि कहाँ से होवे?" इस प्रकार चिंतन करते हुए मार्ग में चलता हुआ, इधर- उधर देखता हुआ देय के दान के लिए व्याकुल होता हुआ जा रहा था, तब प्रबल पुण्य के योग से एक उग्र तपस्वी मुनि पारणे के लिए नगर में गोचरी के लिए घूमते हुए दिखाई दिये। चन्द्र को देखकर चकोर की तरह, उन्नत मेघ को देखकर मयूर की तरह अति हर्ष से भरे हुए हृदय से उल्लसित रोम-राशिवाला शीघ्र-शीघ्र साधु के समीप जाकर हाथों को जोड़कर विनति करने लगा-“हे स्वामी! हे कृपानिधि! मुझ गरीब पर कृपा करके यह शुद्ध आहार ग्रहण करें। शंका आदि दोषों से रहित यह आपके ग्रहण करने योग्य है। अतः पात्र सामने रखकर मेरा उद्धार कीजिए।" तब साधु ने भी निर्दोष आहार जानकर अति उग्र भाव देखकर पात्र सामने रखा। वह भी निधान प्राप्त होने की तरह अत्यन्त हर्षपूर्वक सुखभक्षिका
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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