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________________ धन्य-चरित्र/276 पर्वत की स्वर्ण - सम्पत्ति के समान प्राप्त यह लक्ष्मी मुझे रुचिकर नहीं है, जो चिरकाल तक चारों ओर घूमते हुए मित्र रूपी सूर्य के लिए अनुपकारिणी है अर्थात् किसी भी काम में नही आती है। इसलिए हे पूज्यों! मुझ पर अनुग्रह करें। आप यहीं रहें। इस लक्ष्मी को चिरकाल तक भोग - त्याग आदि के द्वारा इच्छापूर्वक सफल करें। मुझ शिशु का मनरथ पूर्ण करें।" इस प्रकार की विनय - भक्ति से युक्त धन्य की वाणी सुनकर अभिमान के दोष से दूषित ईर्ष्या से जलते हुए अन्तःकरणवाले उन्होंने कहा - "हे भाई! छोटे भाई के घर में हम नहीं रहेंगे, क्योंकि छोटों के वहाँ रहने से हमारा बड़प्पन जाता रहेगा। राहू के घर में रहा हुआ सूर्य क्या नीचता को प्राप्त नहीं होता ? अतः पिता के धन का विभाग करके हमें दे दो, जिससे हम पृथक-पृथक घर लेकर यहाँ सुखपूर्वक निवास करेंगे।" उनके कथन को सुनकर विवेकी धन्य ने अपनी सज्जनता को नहीं छोड़ते हुए सरल आशय से कहा - " अगर इसी से आपको प्रसन्नता मिलती है, तो अच्छा है। मैं तो आपकी आज्ञा का गुलाम हूँ ।" इस प्रकार निवेदन करके भाण्डागारिक पुरुषों को बुलाकर आज्ञा दी कि इन तीनों पूज्यपादों में से प्रत्येक को चौदह - चौदह करोड़ सुवर्ण दे दो। यह आज्ञा सुनकर "बहुत अच्छा" कहकर "मेरे स्वामी के वचन ही प्रमाण हैं" यह कहकर प्रणाम करके उन तीनों को कहा - " आप मेरे साथ आइए ! स्वामी की आज्ञा से मैं आपको स्वर्ण- कोटि देता हूँ ।" तब वे धन ग्रहण करने के लिए आाण्डागारिक के पीछे-पीछे गये। तब सभ्य, परिजन तथा अन्य लोग धन्य के गुणों के द्वारा और उन तीनों के दोषों के द्वारा चित्त में चमत्कृत होते हुए भुजाओं को उठा-उठाकर वादियों में इन्द्र की तरह परस्पर कहने लगे - " ईर्ष्या और निर्धनता में ये तीनों परम कोटि को प्राप्त हैं और धन्य भ्रात - स्नेह तथा दानवीरता में परम कोटि को प्राप्त है । इस जगत में जो लोग स्वकीय और परकीय धन को ग्रहण करने की इच्छा करते हैं, वे तो बहुत है। पर जो अपनी भुजाओं से उपार्जित अत्यधिक धन को शत्रु को भी प्रदान कर देते हैं, वे जगत में अति दुर्लभतर हैं । " उधर भाण्डागारिक ने धन्य की आज्ञा से प्रत्येक को चौदह - चौदह करोड़ स्वर्ण दिया। उस धन को लेकर जाते हुए उनको हाथ में मुद्गर लिए हुए उस धन के अधिष्ठायक देवों, वीरों तथा भटों के द्वारा चोरों की तरह उन्हें पहले दरवाजे पर ही रोक लिया। उनके आगे प्रकट होकर कहने लगे - " हे निर्भागियों के शिरोमणि! दुर्जनों! दुष्टों ! पुण्य से आढ्य धन्य के धन को तुम लोग भोगने
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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