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________________ धन्य-चरित्र /267 को आगे करके नगर के मुख्य दरवाजे से प्रवेश करवाया। स्वर्ण, रजत, पुष्प आदि से वर्धापित करके बंदी - जनों को ईप्सित दान दिया । त्रिपथ, चतुष्पथ, राजपथ आदि पर अनेकों दुकानों, आवासों, भवनों, दो-तीन - चार - पाँच-छः-सात मंजिलोंवाले देवलोक के सदृश आवासों को देखते हुए, इभ्य - महेभ्य - राजवर्गीय - स्वाभाविकजनों के प्रणाम आदि को ग्रहण करते हुए राजद्वार के समीप वे सभी आये। हाथी से उतरकर श्रेणिक ने सम्मान की दृष्टि से पुनः प्रद्योत को आगे करके राज-द्वार में प्रवेश करवाया। तब अन्तःपुर के स्त्री - वर्ग के द्वारा मणि - मुक्ताओं से राजा को बधाया गया । फिर दोनों एक-दूसरे के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए आस्थान - मण्डप में आये । परस्पर अति - 3 - आग्रह से शिष्टाचारपूर्वक दोनों ही समान - आसान पर बैठे। राजवर्गीय लोगों तथा धन्य की प्रमुखता से युक्त महेभ्यों ने न्यौछावरपूर्वक उपहार आगे रखकर प्रणाम करके यथा-स्थान को ग्रहण किया। तब प्रद्योत राजा ने धन्य को देखकर पहचान लिया और कहा - " अहो धन्य ! हमारे पास से गुप्त रूप से आपके चले जाने का क्या कारण है? हमने तो आपका कोई अनादर भी नहीं किया। आपके वचन का उल्लंघन भी नहीं किया, जिससे कि किसी भी पूछे बिना सिद्ध पुरुष की तरह बिना किसी को दिखाई दिये आप चले गये। अनेक प्रकार से आपकी खोज की, पर आपका कहीं भी पता नहीं चला। आपके वियोग से हमें जो दुःख हुआ, उसे कैसे कहकर बतायें? आपने यहाँ आकर मगधाधिप के नगर को अलंकृत किया, पर हमें कभी भी संदेश - वाहक या लेख नहीं भेजा । यह भी आप जैसे सज्जन व गुणी पुरुषों के योग्य प्रतीत नहीं होता। सज्जन पुरुष तो सप्तपदी (विवाह के समय की जानेवाली सात प्रतिज्ञाएँ) की तरह मैत्री भी प्रणान्त तक निभाते हैं । हमारा स्वामी - सेवक भाव तो लोकोक्ति के द्वारा कथन - मात्र ही था। मेरे मन में तो अद्वितीय, दुःख - सहायक भाई के तुल्य, वाणी के द्वारा अवाच्य, कथन के अयोग्य, अन्तर के भावों को जाननेवाले के रूप में विश्वास के पात्र थे। ऐसे स्नेह-सम्बन्ध में ऐसी उदासीनता दोष के लिए क्यों न हो ? यह तो उत्तम - जनों की रीति नहीं है । " प्रद्योत राजा के इस प्रकार के वचनों के सुनकर धन्य ने उठकर प्रणाम करके तथा हाथों को जोड़कर कहा - ' - "कृपानिधि ! जो आपने कहा, वह सत्य ही है । मुझे अपराधी का ही दोष है और वह स्वामी के द्वारा क्षमा करने योग्य है । आपकी कृपा की प्रशस्ति मैं एक मुख से करने में कैसे समर्थ हो सकता हूँ? इस प्रकार सेवक के दोषों का आच्छादन, गुणों का प्रकटीकरण, बिना किसी लाग-लपट के आजीविका का दान, सेवक द्वारा कहे हुए वचनों का सत्यापन तथा सुरवृक्ष
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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