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________________ धन्य-चरित्र/265 कार्य हो, तो हमें आदेश प्रदान करें। हम सभी को अपना ही सेवक मानें।" इस प्रकार बातें करते हुए और त्वरित गति से जाते हुए दिन के अस्त होने तक उन लोगों ने बीस योजन पार कर लिये। अभय ने भी आकर मौसाजी को प्रणाम करके कहा-"महाराज! मुझ बालक का प्रणाम स्वीकार कीजिए। मेरे द्वारा वचन-पालन के लिए किये गये इस अपराध को क्षमा करें। आप तो मेरे लिए पूज्य हैं। सेवा के योग्य हैं। आपके जिस अविनय के लिए मैं प्रवृत्त हुआ और आपकी महा-आशातना की, वह तो आप जैसे स्वर्ण तुल्य स्वामी के द्वारा क्षमा करने योग्य है। जो आप जैसे गम्भीर और बड़े लोग होते हैं, वे शिशु के अज्ञान से विलसित कार्य को देखकर कोप नहीं करते हैं, बल्कि उसका हित ही करते हैं। मैं बालक आपके सामने कितना मात्र हूँ? मैं तो आपके आदेश का गुलाम हूँ। जगत में मान-भंग किसी को प्रिय नहीं है, फिर अत्यधिक विशाल रूप में मान-भंग करना तो महा-दोषकारी है। पर क्या करूँ? आपने मुझे धर्म का छल करके ठगा था। जिन संसारी जीवों का जिस राग-द्वेषादि के द्वारा जिस दम्भ को रचा गया, उनके साथ स्व-बुद्धि के प्रपंच से वैसा ही करना चाहिए-यह नीतिशास्त्र में भी कहा गया है। पर एकमात्र धर्मछल को छोड़कर बाकी किसी भी रीति से प्रतिकार किया जा सकता है। अभिमान तो हर जगह प्राणियों के लिए वर्जित करने योग्य है। पर व्यवहार के निर्वाह के लिए किसी भी प्रकार से हो ही जाता है। वह लौकिक प्रपंच के द्वारा कर्त्तव्य बन जाता है, लोकोत्तर प्रपंच के द्वारा नहीं। लोकोत्तर दम्भ तो महान गुणवानों के गुणों का पतन करके उन्हें निगोद रूपी कैदखाने में डालता है। अतः मेरे द्वारा वही सब दिखाने के लिए बाल-चापल्य किया गया है।" ___ अभय के कथन को सुनकर प्रद्योत ने सिर हिलाकर मुस्कुराते हुए कहा- "हे अभय! तुमने जो कुछ भी कहा है, वह सत्य ही है और विधाता ने सबुद्धि व बुद्धि के पात्र के रूप में जगत में एकमात्र तुम्हे ही पैदा किया है। तुम्हारी बुद्धि के प्रपंच का रहस्य देव भी नहीं पा सकते, तो हमारे जैसों का तो पूछना ही क्या? तुम्हारे तो रोम-रोम में सैकड़ों-हजारों सद्-बुद्धियों का निवास है। तुम्हारे आगे कौन अपनी बुद्धि का गर्व करने में समर्थ है? तुमने पूर्व में जो कुछ कहा था, उससे तो ज्यादा ही कर दिखाया है। मैंने भी तुम्हारे आगे हाथ जोड़ लिये है। बहुत हो गया। अब तो कृपा करके मुझे मुक्त करो, जिससे मैं अपने अभिमान का त्याग करके अपने घर जाऊँ।" ___ अभय ने कहा- " हे स्वामी! ऐसा न कहें। आप तो मेरे पूज्यों के भी पूज्य है। मैं तो आपका आज्ञाकारी दास हूँ। मैं तो आपके अनुचर के समान हूँ।
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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