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________________ धन्य-चरित्र/261 वचनों के रूप में प्रलाप करता था । अनेक प्रकार की पागलपन की क्रियाओं को करता था । दो-तीन घड़ी के बाद श्रेष्ठी भी सेवकों के द्वारा खाट उठवाकर दौड़ता हुआ पीछे से आता था । पूर्व की तरह ही अति कष्टपूर्वक खाट पर आरोपित करके तथा बाँधकर "मैं देश का अधिपति तुम्हारा प्रद्योत राजा हूँ । मुझे यह अभय ग्रहण करके ले जा रहा है। आप लोग मुझे क्यों नहीं छुड़वाते हैं?" इस प्रकार बोलते हुए को पकड़वाकर श्रेष्ठी ग्राम से बाहर चला जाता था। तब दुकानों पर स्थित लोग कहते थे - " इस विडम्बना से विडम्बित श्रेष्ठी तीर्थ के लिए जानेवाला है। रोज इस प्रकार की विडम्बना को कौन सहन कर सकता है? धन्य है यह श्रेष्ठी ! धन्य है इसका स्नेह ! जो नित्य ही इस प्रकार निर्वाह करता है।” इस प्रकार की बातें सुनते हुए रोज श्रेष्ठी आता था, जाता था, पर अब कोई भी न तो उठता था, न उसके पीछे-पीछे आता था। जब कोई कुछ भी बोलता था, तो दूसरा बोलता था - " इसमें आश्चर्य ही क्या है ? यह रोज की क्रिया तो सभी नागरिकों को विदित ही है। पूर्वकृत कर्मों के विपाक को ही भोगता है । मन को स्थिर रखकर मौनपूर्वक अपना-अपना कार्य करो। " इस प्रकार करते हुए एक रात्रि के बाद प्रयाण का दिवस आ गया। तब उन दोनों के द्वारा उनकी प्रिय सखी दूती के घर भेजी गयी। उसने भी वहाँ जाकर कहा - "कल पहली चार घड़ियों के अन्दर हमारे स्वामी प्रयाण करेंगे। सभी बाह्य व आभ्यन्तर रक्षक - जन कितनी ही दूर तक पहुँचाने के लिए जायेंगे। वे पिछले प्रहर में पुनः आ जायेंगे । अतः प्रभात में एक प्रहर दिन चढ़ जाने पर राजा सामन्य वणिक के वेश में अकेले ही आ जायें। मैं फिर से आमंत्रण के लिए आऊँगी। आगे-आगे कुछ दूरी पर चलूँगी । तब मेरे पीछे-पीछे राजा भी जिस प्रकार से कोई न जान पाये, उस प्रकार से सिर पर वस्त्र डालकर उस एकान्त में रहे हुए दरवाजे पर आ जायेंगे। मन - इच्छित अनेक मनोरथ सफल होंगे। अतः मुझे राजा के समीप ले जाओ, जिससे मैं उन्हें अब कुछ निवेदन कर दूँ । उसके इस प्रकार कहने पर दूती प्रसन्नतापूर्वक उसे राजा के समीप ले गयी। उसने भी राजा से सभी निवेदन कर दिया। यह सुनकर प्रसन्न होते हुए राजा ने वस्त्र - आभूषण आदि गुप्त रूप से देकर उसे विसर्जित किया। विसर्जन के अवसर पर उसने पुनः कहा- " वे दोनों कदाचित् जीवापन करें, तो किसी के आगे नहीं कहें। वे दोनों, मैं, आप और ये इस तरह पाँच जनें इस वार्ता को जानते हैं, छट्टा कोई भी नहीं ।" राजा ने कहा- "तुम किसी बात की चिंता मत करो। मैं वैसा ही करूँगा।"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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