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________________ धन्य - चरित्र / 16 क्यों आयी है? क्या करती है? मेरी मर्यादा करती है या नहीं? अथवा तो दोनों ही निर्लज्ज है? मैं यह कौतुक देखता हूँ।” तब उस स्त्री ने श्रेष्ठी के पलंग के चारों और घूमकर श्रेष्ठी के उत्तरीय पल्ले को धूप की घटिका में गिरा हुआ देखकर शीघ्र ही उसमें से निकालकर हाथ से मसलकर उसकी आग बुझाकर रख दिया। फिर घटिका को थोड़ा दूर रखकर सभी वस्तुएँ सुव्यवस्थित करके वापस लौटने लगी । विप्र ने विचार किया - "किस कारण से आयी थी? श्रेष्ठी को भी नहीं जगाया। केवल पलंग का चक्कर लगाया। क्या मुझे देखकर लज्जित हो गयी?” इस प्रकार विचार करने लगा। जब वह विप्र के पलंग के पास से गुजरी, तो विप्र ने उसका आँचल पकड़कर पूछा - "तुम कौन हो? किस कारण से आयी थी? जैसे आयी, वैसे ही क्यों जा रही हो? क्या मेरे कारण से तुम्हे अंतराय हुई?" विप्र के इस प्रकार के वचनों को सुनकर वह कुछ कुपित होती हुई बोली–“हे मूर्खशेखर! पागलों की तरह क्या असंबद्ध प्रलाप करते हो। इस पुण्यवंत श्रेष्ठी के घर की मैं लक्ष्मी हूँ। श्रेष्ठी की सार-सम्भाल के लिए मैं आयी थी । इसके उत्तरीय - वस्त्र को धूप - घटिका में जलता हुआ देखकर मैंने आकर उसके पल्ले को बुझाया और अब जा रही हूँ। इसमें तुम्हें क्या दुःख है?" विप्र ने कहा- "मेरे घर में भी तुम प्रचुर मात्रा में रहती हो, फिर मेरी सेवा क्यों नहीं करती ? मेरी सार-सम्भाल क्यों नहीं करती? क्या केवल इसी पर तुम्हारी भक्ति है?” लक्ष्मी ने कहा—“हे निर्गुण शिरोमणि! इस सेठ ने पूर्व जन्म में आगम में कहे हुए के अनुसार त्रिकरण-शुद्धि से दान-पुण्य आदि किया। इस प्रकार पुण्यानुबंधी पुण्यवाले इस सेठ की मैं दासी रूप परिचारिका हूँ। विवेक रहित अज्ञान कष्टकारी पापानु-बंधी पुण्यवाले तुम हो, अतः मैं तुम्हारी स्वामिनी हूँ । तुम तो मेरे दास के भी दास हो । किंकर के ऊपर कैसी भक्ति ?" विप्र ने कहा- "हे लक्ष्मी! इसके व मेरे ऊपर इस प्रकार का पक्षपात क्यों रखती हो? इसने तुम्हे क्या दिया और मैंने तुम्हारा क्या चोरी कर लिया? इस प्रकार मनुष्यत्व रूपी समानता होने पर तुम्हारा पँक्ति-भेद घटित नहीं होता। मैं तो तुम्हारी यत्नपूर्वक रक्षा करता हूँ। यह तो तुम्हारा जैसे-तैसे, जहाँ-तहाँ व्यय करता रहता है। फिर भी इस पर तो तुम्हारा स्नेह है और मुझसे तुम पराङ्मुख रहती हो। बोलो, इसका क्या कारण है?" लक्ष्मी ने कहा-“हे अज्ञ शिरोमणि! पश्चात् - बुद्धि ! इसके द्वारा शुद्ध श्रद्धायुक्त
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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