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________________ धन्य-चरित्र/219 किसके घर में प्रवेश करते हो?" यह सुनकर चमत्कृत होते हुए धनकर्मा ने कहा- "हे भाई! क्या मुझे नहीं पहचानते? तुम्हारा इतना काल तो मेरी सेवा करते हुए बीता है। तुम लोग अब ऐसा विपरीत वर्तन कैसे करने लगे हो?" तब सेवकों ने कहा-"जाओ-जाओ! अन्यत्र अपनी धूर्तकला दिखाओ। हम तो जानते हैं। जाने हुए को ग्रह पीड़ा नहीं करते।" । श्रेष्ठी ने कहा-"क्या सभी स्वामी-द्रोही हो गये हैं? सात-आठ दिनों में ही विस्मृति आ गयी, जिससे कि अपने स्वामी को भी नहीं पहचानते हो?" सेवकों ने कहा-"किसके स्वामी? किसके सेवक? हमारे स्वामी तो आवास के अन्दर अत्यधिक शुभता के साथ चिंरजीवी रूप से शोभते हैं। तुम तो कोई धूर्त हो, अपनी कला से घर को लूटने के लिए आये हो। हमारे स्वामी ने तो पहले से ही कह दिया था कि कुछ धूर्त नगर में आये हुए हैं। अतः यहाँ से शीघ्र ही दूर चले जाओ। अगर हमारे स्वामी को पता चलेगा, तो तुम्हारी विषम-दशा करेंगे।" इस प्रकार वे परस्पर विवाद कर ही रहे थे कि पास-पड़ोस के लोग आ गये। तब श्रेष्ठी ने कहा-“हे भाइयों! आप देखिए कि मैं आपको अपना कार्य बताकर अमुक ग्राम को गया था। उस कार्य को करके शीघ्र ही यहाँ आया हूँ। ये इतने काल के परिचित सेवक भी मुझे नहीं पहचानते हुए मुझे घर में प्रवेश करने से मना कर रहे हैं।" ___ उसके इस कथन को सुनकर सभी विचार में पड़ गये कि क्या यह धनकर्मा है? तो फिर जो घर में है, वह कौन है? यह भी जो बोलता है, वह सत्य प्रतीत होता है। घर के अन्दर जो है, वह भी सत्य प्रतीत होता है। फिर इन दोनों में सत्य कौन है और असत्य कौन है? अतिशय ज्ञानी के बिना कौन जान सकता है?" तब एक ने कहा-"घर के अन्दर रहे हुए श्रेष्ठी को बाहर लाकर दोनों का संयोग करके देखें, सत्य-असत्य का विभाग हो जायेगा।" तब एक व्यक्ति, जो झूठे धनकर्मा के खान-पान, मिष्ट-वचन आदि से तृप्त होकर उसके अधीन था, वह बोला-"यह कौन-सा धनकर्मा है? वह तो घर के अन्दर आनंद का अनुभव कर रहा है। यह तो कोई धूर्त है।" तभी किसी बुद्धिमान तत्त्वग्राही ने कहा-'भाइयों! मुझे तो यह बाहर से आया हुआ धनकर्मा ही सत्य प्रतीत होता है। कैसे? प्रकृति और प्राण का विगमन साथ ही होता है। किसी का भी तत्त्व श्रवण के द्वारा प्रतिबोध होने से किसी भी
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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