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________________ धन्य-चरित्र/217 उच्छेद किया है। वर्तमान समय में तो इस प्रकार दारिद्र्य-चूरक, चाह से अधिक दान देनेवाला मैंने न तो कहीं देखा, न सुना। इसकी माता ने तो इसको ही जन्म दिया है। दाता के समस्त गुणों से भूषित जैसा यह है, वैसा न कभी हुआ है और न होगा। ज्यादा क्या वर्णन करूँ? ब्रह्मा भी उसके गुणों का वर्णन करने में समर्थ नहीं है।" ___ यह वार्ता पार्श्ववर्ती दूकान में स्थित मूल धनकर्मा ने सुनी। सुनकर चमत्कृत होता हुआ वह अपने मन में विचार करने लगा-"अहो! मेरे नगर में तो धनी धनकर्मा मैं ही हूँ। अन्य तो कोई भी न देखा, न सुना। मैं तो यहाँ हूँ। अथवा वह किसी अन्य ग्राम से आया है? इस प्रकार शंकायुक्त होकर याचक से पूछा-"तुम्हारे द्वारा कहा हुआ धनकर्मा किस ग्राम से आया हुआ है?" याचक ने कहा-"आया हुआ आया हुआ क्या बोलते हो? उस नगर का ही वह निवासी है। वह रूप में तो साक्षात् तुम्हारे जैसा प्रतीत होता है, पर गुणों में तो तुमसे भी ज्यादा है।" __ याचक के इस कथन को सुनकर उसे अत्यधिक दुःख हुआ। यह याचक क्या बोलता है? नगर में तो मेरे समान कोई नहीं है। तो मेरे पाटक में तो कैसे हो सकता है? यह विचार कर पुनः पूछा-"हे याचक! तुम जो प्रलाप कर रहे हो, वह मेरे मन को नहीं जंचता। अतः बार-बार पूछ रहा हूँ, क्योंकि याचक की शतजिह्वा होती है। प्रतिक्षण पृथग् भाव से बोलती हुई आप लोगों की जाति होती है। अतः कहता हूँ कि तुम जो कुछ बोल रहे हो, वह क्या तुमने किसी के मुख से सुना है? अथवा क्या तुम भांगादि का पान करके प्रलाप कर रहे हो? इसका कारण यह है कि जो तुम्हारे द्वारा पाटक-नायक के बारे में कहा जा रहा है, वह तो मैं ही हूँ। धन-व्यवसायादि से मेरे समान दूसरा कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण नगर में नहीं है। तो फिर पाटक में तो कहाँ से आयेगा? मैं तो किसी कार्यवश यहाँ आया हूँ, कुछ ही दिन हुए हैं। अतः तुम्हारा कहा हुआ कैसे संभव हो सकता है?" याचक ने कहा-"क्यों वितारण करते हो? हम याचक यथार्थ के वाचक होते हैं। जैसा दिखता है, वैसा ही कथन करते हैं। हृदय में कुछ और मुख में भिन्न आशय रूप से बोलने का वरदान विधाता ने आपकी जाति को ही दिया है। यदि विश्वास नहीं होता है, तो वहाँ जाकर देखिए। सब कुछ ज्ञात हो ही जायेगा। पर नगर में भ्रमण करते हुए मैंने इतना जरूर सुना था कि यह धनकर्मा पूर्व में तो महा-कृपण था, पर अब इसके जैसा महादानी कोई भी दिखाई नहीं देता। अतः हे श्रेष्ठी! मैंने जो कुछ भी कहा है, उसे सर्व सत्य ही जानो। झूठ
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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