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________________ धन्य-चरित्र/213 त्याग करके निर्वृतिपुरी को चले जाते हैं। इस प्रकार ऐसे जिनशासन के उपासकों को छोड़कर सभी संसारी जीव मेरे किंकर हैं। मैं उन्हें सहस्रों दुःख देती हूँ, फिर भी मेरी चरणोपासना और प्रीति नहीं छोड़ते हैं। मेरे लिए तप-जप कायक्लेशादि अनेक प्रकार से पापानुबंधी पुण्य करते हैं। परन्तु मैं उनको सभी ओर से वृद्धि दिखाकर नरकावास में अथवा तिर्यंचों में गिरा देती हूँ। वे भी सर्पादि तिर्यंच मुझे घेरकर निधानादि का सेवन करते हैं। जो कोई कष्ट से देवों में उत्पन्न होते हैं, वे भी दूसरों की भूमि में रहे हुए मुझ रूपी द्रव्य का (लक्ष्मी का) आश्रय करके निष्कारण ही वहाँ वास करते है। लोगों को तो वह लक्ष्मी मिट्टी या कोयले के रूप में दिखाई देती है। अतः हे भगवति वाणि! संपूर्ण संसारी मेरी प्राप्ति को ही महत्त्व देते हैं। केवल जो कोई मोक्षार्थी हैं, वे मनुष्य ही तुम्हारी उपासना में रत हैं। वे नर ही तुम्हारा महत्त्व स्वीकार करते हैं।" __इस प्रकार से लक्ष्मी के कथन को सुनकर सरस्वती ने कहा-"भगिनी! एक तो तुम्हारा महादूषण यह है कि अपने सेवकों को नरभव आदि में वैभवादि देकर और सुख दिखाकर नरक रूपी कारावास में डाल देती हो। अपने आश्रितों का तो उद्धार ही करना महान लोगों के लिए युक्त है।" यह सुनकर लक्ष्मी बोली-“बहन! विदुषी होकर श्रुत की जड़ता को क्यों प्रकट करती हो? केवल मैं ही नरकावास में नहीं गिराती हूँ, किन्तु मोहराज से प्रयुक्त विषय–अविद्या-व्यसन- काम-भोगादि भी नरक में गिराते हैं। मेरे बल से तो धन-विवेक की मति परम पद का साधन मानकर चिदानंद को प्राप्त कराती हुई सुनी जाती है। शास्त्र में भी कनक से मुक्ति कही जाती है। इसी प्रकार तुम्हारी प्राप्ति होने से महा-अद्भुत श्रुत केवली भी मोहराज से युक्त प्रमादाचरण के द्वारा अनन्त तिर्यंचों में परिभ्रमण करते हैं। तो क्या यह तुम्हारा दोष है?" यह सुनकर और हँसते हुए सरस्वती बोली-"भगिनि! एक विवाद-भंजक तथा तुम्हारे और मेरे महत्त्व का पोषक वाक्य कहती हूँ, उसे सुनो-"जिस किसी ने भी हम दोनों की प्राप्ति के समय सत्संगति के स्वीकारपूर्वक विवेक लोचन का लाभ प्राप्त किया है, वह त्रिवर्ग के साधनपूर्वक परमानंद पद को प्राप्त करता है।" लक्ष्मी ने कहा-"यह तो सत्य है।" इस प्रकार विवाद खत्म हो जाने पर दोनों अपने-अपने स्थान पर चली गयी। ।। इति लक्ष्मी-सरस्वती का संवाद ।। इसी प्रकार पुराण आदि में भी कहा हुआ होने से हे भव्यों! सुनो
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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