SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य-चरित्र/210 उपकारी यह विप्र भी वहाँ आया। हम तीनों ने इससे अनुनय किया। इसने सुनते ही लताओं की रस्सी आदि बनाकर अत्यधिक प्रत्यनपूर्वक हमें बाहर निकाला। तब हमने इसे प्रणाम करके इसे सीख दी कि अयोग्य होने से उस चौथे पर उपकार करना उचित नहीं है। यह कहकर हम लोग तो स्व-स्थान पर चले गये। उसके बाद इस सोनार ने अत्यधिक चाटु वचनों के द्वारा विप्र को मना लिया। उपकारी स्वभाववाले विप्र ने हमारे वचनों को भुलाकर उसे भी निकाला और वह घर चला गया। विप्र तो तीर्थों को करता हुआ लौटता हुआ व्याघ्र के द्वारा देखा गया। उसके उपकारों को याद करके ये आभरण व्याघ्र ने इस विप्र को दिये। यह विप्र फिर यहाँ आया। सुनार ने इसके पास धन देखकर कपट करके अपने घर ले जाकर इसके समस्त आभूषण लेकर आपको कपटपूर्वक झूठ कहा। विचारमूढ़ होकर आपने भी बिना विचारे विडम्बना करके द्विज की यह अवस्था की। वानर ने जब यह देखा, तो शीघ्र ही आकर मुझे कहा। तो इस उपकारी को दुःख देनेवाले तुमको कैसे छोड़ दूँ। "शिष्टस्य पालनं दुष्टस्य दण्डं'- इस नीतिवाक्य का स्मरण करके मेरे द्वारा डसा गया।' तब राजा ने सर्व लोगों के सामने अपनी निंदा की। द्विजवर और नाग से क्षमायाचना करके कहा-"जो आपका आदेश हो, मैं वही करूँगा।" तब नाग ने कहा-"तुम एक लाख स्वर्णमुद्राओं के साथ दस भव्य ग्राम इसे दो, तो मैं राजकुमार को छोड़ दूंगा।" राजा ने वैसा ही करके ब्राह्मण की पूजा की। कुमार निर्विष हुआ और सुनार को कृतघ्न जानकर राजा ने उसके वध का आदेश दिया। पर द्विज ने दया करके उसे छुड़वा दिया। अतः यह सुनार अपनी माता के स्वर्ण का भी चोर होता है। हमने अच्छा नहीं किया, जो कि इसको सहायक बनाकर यहाँ लाये। पहले ही कुछ भी बहाना बनाकर घन-छेदनिका आदि साधनों को माँग लिया होता, तो भव्य होता। अब तो अहि- गंधमूषिका न्याय से विषम संकट आ पड़ा है, क्योंकि जा मति पीछे उपजे, सा मति पेहली होय। काज न विणसे आपणो, दुरजन हसे न कोय।। अर्थात् जो मति बाद में उत्पन्न होती है, वह मति पहले सोचनी चाहिए, जिससे कार्य भी विनष्ट नहीं होता और दुर्जन भी नहीं हँसते। और भी, यह शिला एक ही दिन में नहीं तोड़ी जा सकती। बहुत से दिनों में ही यह कार्य साध्य होने से प्रभात होने पर जितना ले जाना शक्य होगा, उतना स्वर्ण लेकर हम और यह अपने-अपने स्थान-स्थान पर चले जायेंगे। घर
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy