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________________ धन्य-चरित्र/13 तब श्रेष्ठी ने कहा-"अच्छी बात है, लेखा-जोखा करके ब्याज सहित अपना सारा धन ग्रहण कीजिए।" इस प्रकार कहकर बड़े लेखाकार को बुलाकर कहा-"इन ब्राह्मण श्रेष्ठ के धन का लेखा-जोखा करके ब्याज सहित इनका धन इन्हें दिया जाये। विस्तारपूर्वक इनका लेखा किया जाना चाहिए। एक कौड़ी मात्र धन भी इनके धन में से कम नहीं होना चाहिए, ब्राह्मण को धन देना तो श्रेष्ठ है, पर उनसे लेना श्रेष्ठ नहीं है।" । लेखाकार ने भी विशद-रीति से लेख्यक करके, वह हिसाब द्विज को सुनाकर उसके आगे धन का ढेर लगा दिया। ब्राह्मण भी उस धन को लेने लगा, इतने में श्रेष्ठी ने कहा-"द्विजवर! पिछला दिन थोड़ा ही शेष है। आपका घर तो बहुत दूर है। धन लेकर जाते हुए तो रात हो जायेगी। रात्रि में आपका धन लेकर जाना युक्त नहीं है। अतः आज की रात आप ही यहीं रुक जाइए। सवेरा होने पर आप सुखपूर्वक चले जाना । अतः आप अपनी इच्छित भोजन सामग्री ग्रहण करें। हमारे घर की वाटिका में रसोई बनाकर भोजन करके हमें पवित्र करें।" सेठ के इस प्रकार कहने पर द्विज ने भी सहमति दे दी। वह हर्षित हो गया कि धन भी प्राप्त हो गया और स्वेच्छा से भोजन भी मिल गया। तब सेवक उसे घर की वाटिका में लेकर गया। इच्छा से भी अधिक आटा, घृत, शक्कर आदि विविध व्यंजन, धान्य, दाल, दूध आदि सामग्री उसे दी गयी। द्विज स्नान करके रसोई बनाता हुआ विचार करने लगा-"मैं तो अकेला हूँ और इतनी सारी सामग्री लाकर रखी गयी है। इस प्रकार अनीति से धन व्यय करेगा, तो थोड़े ही दिनों में यह निर्धन हो जायेगा। इसलिए मैंने जो किया, वह ठीक ही किया।" इस प्रकार विचार करते हुए रसोई बनाकर यथेच्छा भोजन करके रात्रि के प्रथम प्रहर में आकर सेठ के समीप बैठ गया। श्रेष्ठी ने ही अपने सेवक को आज्ञा दी-"घर की ऊपरी भूमि पर मेरे शयन-कक्ष में मेरे पलंग के पास ही भव्य पलंग सजाकर पंडित जी को सोने के लिए दो।" सेवक ने वैसा ही करके सेठ को आकर के सूचना दी। तब श्रेष्ठी ने ब्राह्मण से कहा-"दूर से आने के कारण आप थक गये होंगे। अतः ऊपरी भूमि पर आप सुखपूर्वक सो जायें। समय होने पर मैं भी सोने के लिए वहीं आ जाऊँगा। फिर हृदय में रही हुई वार्ता एकान्त में करेंगे।" यह सुनकर द्विज ऊपर जाकर शय्या पर बैठा। इधर-उधर देखते हुए देवविमान के सदृश शय्या को देखकर पुनः विह्वल हो गया। पंलग के ऊपर पुष्प-मालाओं का जाल गूंथा हुआ था। उसके ऊपर स्वर्णमय धागे से निष्पन्न वस्त्र का चन्दोरबा शोभित होता था। दीवारों पर पुरुष-प्रमाण दर्पण चारों और शोभा को धारण करते थे। छत आदि में चित्त को रंजित करनेवाली, विविध प्रदेशों में उत्पन्न अति निपुण शिल्पियों द्वारा निर्मित स्वर्ण, चाँदी तथा
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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