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________________ धन्य-चरित्र/199 छिपाकर केवल एक हाथ - मात्र बाहर रखा। उस शिला का वह भाग दिन के पिछले सूर्य के आतप से जगमग दिखायी देने लगा । सूर्य की किरणों के समान चमकने लगा। अपराह्न में एक प्रहर दिन शेष रहने पर राजा के द्वारा किसी कार्य के लिए ग्रामान्तर को भेजे गये दो राजसेवक राजा के आदेश को पूर्ण करके वापस आ रहे थे। उनमें से एक सेवक कौतुक - प्रिय होने से इधर-उधर दृष्टि डाते हुए चल रहा था। तब उसने उसी शिला के एक अंश को चमकते हुए देखा । उसने दूसरे सेवक से कहा - " - "भाई! देखो। देखो। दूर से कुछ चमकता हुआ दिखाई दे रहा है।" तब दूसरे ने आगे पीछे का विचार किये बिना उत्सुकता - रहित होकर देखते हुए कहा - "कोई पत्थर का टुकड़ा, काँच या कमल पत्र होगा। क्या इस महा- अरण्य - य- प्रदेश में सुवर्ण-रत्न आदि मिलेगा?" तब पहले ने कहा - "तुम साथ आओ, तो वहाँ जाकर देखें कि क्या है ? क्या चमक रहा है?" दूसरे ने कहा - "वृथा जंगल में घूमने से क्या ? बिना प्रयोजन के प्रयास करने में क्या? यह तो लम्बा मार्ग है। हमसे पहले कितने ही आये होंगे। यदि यह कोई ग्रहण करने लायक वस्तु होती, तो क्या वे लोग न ले गये होते ? अतः शीघ्र चलो । राजा के पास जाकर कार्य का वृत्तान्त कहकर अपने घर जायें । स्नान-मंजन करके भोजनादि से निवृत होकर मार्ग के श्रम को दूर करें ।" उसके कथन को सुनकर पहले ने कहा - "भाई ! मेरे मन में तो महान आश्चर्य हो रहा है, अतः मैं तो वहाँ जाकर ही निर्णय करूँगा।" दूसरे ने कहा - "तुम खुशी से जाओ। तुम्हारे पूर्वजों द्वारा स्थापित वस्तुओं की पोटली बाँधकर घर आ जाना। मेरे लिए कुछ भी शंका न करना। एक भाग या अंशमात्र भी मत देना। मुझे भाग नहीं चाहिए । अतः कुछ भी मत देना । तुम ही सुखी बनो।” ऐसा कहकर वह शीघ्र ही ग्राम के सम्मुख चलने लगा। पहला राजसेवक तो उससे अलग होकर शिला के समीप गया, तब उसने बालुका में दबी हुई शिला के एक भाग को जात्य-स्वर्णमय देखा । चमत्कृत होते हुए मन में विचारने लगा - "अहो ! अच्छा ही हुआ, जो मेरे साथ नहीं आया। अगर वह आ जाता, तो उसका भाग भी उसे अवश्य देना पड़ता। मेरे तो भाग्य का ही उदय हुआ है। अब मैं देखता हूँ कि कितना परिमाण है?" इस प्रकार विचार करके हाथ से बालुका हटाकर देखने लगा। उस शिला को अपरिमित जानकर उसके दर्शन - मात्र से विकल- चैतन्यवाला हो गया । विचारने लगा–“अहो! मेरा भाग्य अद्भुत है, जो इस प्रकार का निधान मुझे प्राप्त हुआ। मुझ पर तो सर्व प्रकार से भाग्य खुश है। इसके लाभ से तो मैं राज्य करूँगा । इसके प्रभाव
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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