SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य-चरित्र/197 वह ग्रहण करके वहाँ से निकलती हुई वृद्धा, जहाँ सरस्वती थी, वहाँ पहुँची। भारती ने पूछा-"कैसी रही तुम्हारी कथा? इस जगती पर कौन मुख्य है? हे भारती! लोक में तुम इस रूढ़ि से प्रवर्तित हुई हो कि लक्ष्मी के सिर पर मेरा स्थान है, वह सत्य है। पर यह तो राजा ने अपनी आज्ञा की प्रवृत्ति के लिए प्रचलित किया है। अगर सोना और चाँदी बिना अक्षर-मुद्रा के न बेचा जाये, तो तुम्हारा महत्त्व सच्चा है। अन्यथा तो बड़बोलापन ही है।" भारती ने कहा-"अज्ञान से अंधी दुनिया में तुम ही मुख्य हो, क्योंकि मुनियों को छोड़कर सभी संसारी इन्द्रिय सुख में लीन हैं। वे सभी तुम्हारी ही कामना करते हैं। जो कोई परमार्थ को जाननेवाले हैं, जिनवचन के हार्द को ग्रहण किये हुए हैं, वे मेरी ही इच्छा करते है।" लक्ष्मी ने कहा-“हे भारती! जो कोई तुम्हें चाहते हैं, उनके लिए तुम भी प्रायः सानुकूल ही होती हो। उसके साथ विहार करती हो। उनके थोड़े अथवा बड़े प्रयास को सफल करती हो। उनका साथ नहीं छोड़ती हो। सर्वथा निराश भी नहीं करती हो। और भी, कुछ लोग तो शास्त्राभ्यास को करते हुए खिन्न होकर विमुख हो जाते हैं, वे तुम्हे छोड़ देते हैं। तुम्हारा नाम भी नहीं लेते। जो तुम में अत्यन्त आसक्त हैं, वे भी मुझे ही चाहते हैं। शास्त्राभ्यास भी मेरी प्राप्ति के लिए ही करते हैं। निर्गुण पुरुषों में भी अनेक सदगुणों के रोपण रूप स्तुति भी करते हैं। इस प्रकार करते हुए मेरा साथ मिलता है, तब तो गर्व से फूल जाते हैं, अन्यथा तो विषाद को प्राप्त होते हैं। पुनः मुझे प्राप्त करने के लिए अन्य-अन्य कला को प्रकर्ष रूप से दिखाते हैं। फिर भी मुझे नहीं प्राप्त कर सकने पर अनेक चाटुकारिता करते हैं। अकरणीय कार्यों को करते हैं। असेव्य को सेवते हैं। विद्यावन्त होते हुए भी दूषणों से निन्दनीय होते हैं और जो मेरी संगति करनेवाले हैं, उनके दोष भी गुणों की तरह गाये जाते हैं। कहा भी है आलस्यं स्थिरतामुपैति भजते चापल्यमुद्योगितां, मूकत्वं मितभाषितां वितनुते मौढ्यं भवेदार्जवम् । पात्रापात्र-विचारणा-विरहिता यच्छत्युदारात्मता, मातर्लक्ष्मि! तव प्रसादवशतो दोषा अमी स्युर्गुणाः ।। अर्थात् धनी व्यक्ति के आलस्य के स्थिरता, चंचलता को उद्यमपना, मूकता को मितभाषिता, मूढ़ता को सरलता कहा जाता है। पात्र-अपात्र की विचारणा से रहित होकर अगर किसी को कुछ देता है, तो उसे उदार आत्मा कहा जाता है। हे लक्ष्मी माता! तुम्हारे कारण ये दोष भी गुण रूप हो जाते हैं। जो लक्ष्मी अर्थात् धन से रहित हैं, उसके गुण भी दूषितता को प्राप्त हो जाते हैं। जैसे
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy