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________________ धन्य-चरित्र/ 194 घर, धन, स्वजन आदि सब कुछ थे, जैसे राजा के भी नहीं होता। पर अब तो एकाकी ही हूँ। सर्व संसारियों के कर्मों की गति विचित्र ही है। क्योंकि नाऽभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि। अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।। अर्थात् सैकड़ों-करोड़ों प्रयत्न करने पर भी कर्म बिना भोगे क्षय को प्राप्त नहीं होते। किये हुए शुभाशुभ कर्म अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। अतः कर्मदोष से जरादि अवस्था को प्राप्त हुई हूँ। भाई! क्या किया जाये?" तब सेठ ने कहा-“माता! आज के बाद आप किसी प्रकार की अधीरता मन में न लायें। इन सभी को आप अपनी संतान के तुल्य ही जानें! मैं भी आपकी सेवा बजानेवाला हूँ, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। इस घर को अपने घर की तरह जानो। मन में कोई भेद नहीं रखना। आपका आदेश ही हमारे लिए प्रमाण है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मन, वचन और काया से आपकी सेवा अपनी माता के समान मानकर ही करूँगा। ज्यादा क्या कहूँ? ज्यादा कहने से कृत्रिमता झलकेगी, अतः समय आने पर आपको स्वतः ही पता चल जायेगा।" । सेठानी ने कहा-"माता! आप यहाँ बीच द्वार पर क्यों बैठी हैं? घर के बीच में आइए। पलंग को अलंकृत कीजिए।" इस प्रकार कहकर सेठानी और बहू के द्वारा बुढ़िया को हाथ और कंधे से पकड़कर "खमा-खमा' शब्द बोलते हुए घर के अन्दर ले जाकर पलंग पर बैठाया गया। इस अवसर पर देव माया से क्या हुआ? जहाँ द्विज के रूप में सरस्वती देवी व्याख्यान कर रही थी, वहाँ सभी पूर्वोक्त लोग सुन रहे थे। वहाँ चतुष्पथ में कुछ राजसेवक, अन्य नागरिक और पामर लोग हाथ में विविध वस्त्राभरण के समूह को ग्रहण करके शीघ्रता से दौड़ते हुए वहाँ आये। उन्हें देखकर श्रवण में रसिक लोगों ने पूछा- "यह सोने –चाँदी के पात्र-आभूषण आदि कहाँ से लेकर आये हो? दौड़ क्यों रहे हो?" उन्होंने कहा-"आज अमुक कोटीश्वर धनी के द्वारा राजा का महान अपराध किया गया होगा, अतः अति कुपित होते हुए राजा के द्वारा सभा में बैठते हुए आज्ञा दी गयी कि सभी राजसेवकों और नागरिकों के द्वारा यथा इच्छा इस अपराधी का घर लूट लिया जाये। जो भी जिस-जिस वस्तु को ग्रहण करता है, उसे उस वस्तु को लेने के लिए मेरी आज्ञा है। सुखपूर्वक लूट लेवे, मेरे से डरने की जरूरत नहीं है। अतः सभी उसका घर लूटने के लिए प्रवृत्त हुए। बहुत तो लूट लिया गया, पर अभी तक बहुत बाकी है। क्या तुम नहीं जाओगे? जाओ-जाओ, वहाँ जाकर यथा-इच्छा ग्रहण करो। वहाँ कोई भी अन्तराय-कारक नहीं है। ऐसा अवसर फिर कब मिलेगा? यहाँ ये बातें सुनकर क्या हाथ में आयेगा?"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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