SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य-चरित्र/191 ही वाचालता करती है विद्वान के द्वारा अमृत को बरसानेवाली वाणी को सुनने में विघ्न पैदा करती हो? लगता है-विधाता ने तुम्हे मनुष्य के वेश में गधी बनाया है। इस दुष्प्राप्य मनुष्य भव को प्राप्त करके सफल तो करती नहीं, बल्कि पूत्कार के द्वारा दूसरों को विघ्न पैदा करती हो, इस पाप से पुनः गधी ही बनोगी।" तब बहु ने कहा-"पूज्ये! एक वृद्ध माता आपके अगणित पूर्वकृत पुण्य के कारण बिना विचारे बिना बुलाये लक्ष्मी की तरह आयी है।" यह सुनकर वह घमण्डी ईर्ष्या और अहंकारपूर्वक बहू को कहने लगी-"हे जड़-प्रकृति! इस नगर में हमारे से भी बड़ा कोई है, जो कि तुम राई का वर्णन पहाड़ की तरह कर रही हो? अतः तुम अज्ञानी और मूर्ख-शिरोमणि हो। तुम अवसर और बिना अवसर को भी नहीं जानती हो। कभी कोई महाजन किसी अवसर पर घर आ भी जाये, तो उसका योग्य सम्मान-शिष्टाचार आदि करके और उसको भेजकर ही अपने कार्य में जो प्रवृत्त होता है, उसे ही निपुण कहा जाता है, तुम जैसों को नहीं।" इस प्रकार के सास के वचनों को सनुकर बहू बोली-"आपने जो कहा है, वह वैसा ही है, पर एकबार यहाँ आकर मेरी बात तो सुन लीजिए। फिर जैसी आपकी इच्छा हो, वैसा करना। क्यों व्यर्थ ही लोगों को सुना रही हैं?" तब सास भृकुटि चढ़ाकर तथा नेत्रों को टेढ़ा करके अन्दर आयी-'बोलो, अब क्या बकवास करती हो?" तब उस बहू ने कक्ष के अंदर वस्त्र से ढ़का हुआ रत्नों में जड़ित स्वर्ण-पात्र दिखाया। उसके दर्शन -मात्र से सूर्योदय होने पर कमल की तरह उसका मुख खिल गया। चेहरे पर मुस्कान लाकर विस्मित होते हुए बहू को पूछा-"पुत्री! यह तुम्हे कहाँ से मिला?" बहू ने कहा-"पूज्ये! आज तो आपके भग्योदय से लक्ष्मी स्वयं ही बिना बुलाये आयी है। अतः मेरे ऊपर क्यों कोप करती हो? अज्ञानता में आपने मुझे जो दुर्वचन कहे, वे आपके लिए युक्त नहीं है। आपकी चरण-सेवा करते हुए मेरी जो इतनी उम्र बीती, वह आज घर में सभी मनुष्यों के बीच में विफल हो गयी। क्या प्रत्युत्तर दूँ? पूज्यों को कोई वचन कहने योग्य होता है और कोई कहने योग्य नहीं होता। कोई प्रकट करने योग्य होता है और कोई चार कानों के योग्य ही होता है, तो क्या सभी के सुनते हुए प्रलाप करना चाहिए? अतः अब आपकी जैसी मर्जी हो, वैसा करें।" इस प्रकार के बहू के वचनों को सुनकर सास प्रत्युत्तर देते बोली-"विदुषी! मैं जानती हूँ कि तुम विचक्षण हो। अवसर को जाननेवाली हो। घर की शोभा हो। पर क्या करूँ? श्रवण करने में एकाग्र मनवाली होने से नहीं जान पायी। मैंने जो दुर्वचन कहे हैं, वे क्षमा करने के योग्य हैं। जिसके बारे में तुम कह रही थी, अब बताओ कि वह कहाँ है?"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy