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________________ धन्य-चरित्र / 189 बह रहा था, टूटी हुई दन्त- पंक्ति से युक्त मुखवाली, अति बुढ़ापे से केश चले जाने से गंजे सिरवाली, शिथिल हुए त्वचा के तेजवाली, अटक - अटक कर बोलनेवाली, क्षीण नेत्र-बलवाली, मटमैले कपड़ों को पहने हुए, कमर से झुकी हुई, हाथ में लकड़ी लिए हुए, दोनों पाँवों से स्खलित होकर डगमगाते हुए चलती हुई नगर के अन्दर आयी । वहाँ घूमते हुए याचना करने लगी। उस देवी के प्रभाव से आधे ढके हुए द्वार के अन्दर बैठी हुई सास और बहू को उसके शब्द कानों में पिघले हुए सीसे को उड़ेलने की तरह प्रतीत हुए। वे शब्द सुनते हुए उन दोनों का रसभंग हुआ । तब अति ईर्ष्या से जलते हुए सास ने पुत्रवधू से कहा - "बेटी ! पिछले द्वार पर जाकर देख, कौन चिल्ला रहा है? कर्णकटु शब्द कौन बोल रहा है? सुनने में विघ्न पैदा होता है। जो माँगे, वह देकर द्वार से बाहर निकाल, जिसे सुखपूर्वक सुना जा सके। ऐसा श्रवण तो किसी पुण्य के उदय से ही प्राप्त होता है, पुनः ऐसा अवसर प्राप्त होना दुर्लभ है। लाखों दीनार से भी ज्यादा मूल्यवाली यह घड़ी जन्म और जीवन को सफल करनेवाली है । अतः शीघ्र ही जाकर उसको भेजकर आ ।" इस प्रकार पुनः - पुनः सास के कहने पर सास के वचन अनुल्लंघनीय जानकर एक बहू अति दुष्कर कार्य करने की तरह मानती हुई कुछ बड़बड़ती हुई जल्दी-जल्दी जाकर पिछला द्वार खोलकर बोली - "हे बुढ़िया ! क्यों चिल्लाती है ? जिससे कि अमृत पीने की तरह भव के दुःख रूपी रोग को हरनेवाले धर्म के मर्म को सुनते हुए हमें विघ्न पैदा होता है। क्या चाहिए? जल्दी से बोलो। वह लाकर दूँ, जिससे तू जल्दी से जल्दी से चली जाये । यह सुनकर बुढ़िया ने कहा - " हे पुण्यवती सुभगे ! धर्म सुनने का फल तो दया है। उसके बिना तो सब कुछ वृथा है। अतः दया करके मुझे जल पिला दे । मैं बहुत प्यासी हूँ। मेरा कण्ठ तृषा से सूख रहा है । " बहू शीघ्र ही जल का कलश भरकर ले आयी । फिर बोली - "जल्दी से अपना पात्र निकालो। जिससे जल देकर मै शीघ्र ही जाऊँ । मेरी तो लाख मूल्य की घड़ी निकली जाती है। इस विद्वान का तो एक-एक वचन भी चिन्तामणि से ज्यादा अमूल्य है। अतः जल ग्रहण कर शीघ्र ही यहाँ से जाओ ।" बुढ़िया ने कहा - " हे भाग्यवती बहिन ! मैं तो बूढ़ी हूँ । जलपात्र निकालती ऐसा कहकर झोली के एक कोने से रत्नमय पात्र निकालकर हाथ में धारण करके जल ग्रहण करने के लिए आगे बढ़ाया। तब वह बहू तेजपुंज से चमकते हुए लाख मूल्यवाले अदृष्टपूर्व पात्र को देखकर अति विस्मित चित्त से कहा - "हे बूढ़ी माँ ! तुम्हारे पास ऐसा पात्र कहाँ से आया? ऐसे पात्र के रहते हुए तुम दुःखी क्यों हो? क्या तुम्हारा कोई भी नहीं है?” तब उस बुढ़िया ने कहा—“हे कुलवती ! पहले मेरे बहुत परिजन थे। वे सभी
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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