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________________ धन्य-चरित्र/183 देवी की वाणी सुनकर उस मागध ने देवी को प्रणाम करके माँगा - "हे प्रिय को देनेवाली माता! अगर आप मुझ पर प्रसन्न हुई हैं, तो मुझे रूप - परावर्तिनी विद्या और अतीत को जाननेवाली विद्या प्रदान करें।" तब देवी ने भी उसको उसका इच्छित वरदान दिया तथा अदृश्य हो गयी । देवी की प्रसन्नता को प्राप्त करनेवालों को क्या अदेय रहता है? तब वह मागध न-चित्त होता हुआ उठकर अपने घर आया, पारणा करके अवसर की प्रतिक्षा करने लगा । प्रसन्न -1 एक दिन धनकर्मा अपने किसी कार्य से ग्रामान्तर में गया। तब अवसर पाकर वह मागध देवी द्वारा किये गये वर के प्रभाव से धनकर्मा का रूप बनाकर उसके घर में जाकर पुत्रादि को बोला - " आज मैं शकुन न होने से ग्रामान्तर नहीं गया । अतः लौटते हुए मैंने मार्ग में श्रीमद् अर्हन्तों का धर्म कहते हुए एक मुनि को देखा । तो मैं मुनि को नमस्कार करके वहीं बैठ गया । करुणा से युक्त मुनि ने धर्म का सार बताया। जैसे कि - सभी संसारियों की कामना प्रचुर होती है। उसके लिए सभी अनिर्वचनीय कष्ट सहन करते हैं, क्योंकि यद् दुर्गामटवीमटन्ति विकटं क्रामन्ति देशान्तरं, गाहन्ते गहनं समुद्रमथन - क्लेशं कृषिं कुर्वते । सेवते कृपणं पतिं गजघटासङ्घट्ट - दुः सञ्चरं, सर्पन्ति प्रघनं धनाऽन्धितधियस्तल्लोभविस्फूर्जितम् ।। अर्थात् गहरे वनों में भम्रण करते हैं, देशान्तर को जाते हैं, समुद्र - मन्थन के लिए गहराई में अवगाहन करते हैं, कृषि क्लेश को करते हैं, कंजूस स्वामी की सेवा करते हैं, हाथियों के समूह में चलने के समान मैदान में जाकर युद्ध करते हैं - इस प्रकार उसके विलास के लोभ से धन में अन्ध-मतिवाले लोग होते हैं । इत्यादि महा - क्लेश का अनुभव करते हैं। पर वह लक्ष्मी तो से पुण्यबल प्राप्त होती है - यह नहीं जानते हुए उसके लिए अठारह पापों का सेवन करते हैं। वैसा आचरण करने पर भी पुण्य - बल के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होता । फिर भी - अज्जं कल्लं परं पुरारिं पुरिसा चिंतन्ति अत्थसंपत्ति । T अंजलिगयं तोयं व गलन्तमाउं न पिच्छन्ति । । अर्थात् आज-कल—आगे - पहले -पीछे पुरुष धन-संपत्ति के बारे में ही सोचते हैं। हाथों की अंजलि में रहे हुए पानी की तरह झरती - बीतती आयु को नहीं देखते । इत्यादि आशा रूपी शाकिनी गृहित किये हुए लोग उस धन के लिए व्यर्थ ही दौड़ते हैं। अगर कभी पूर्वकृत पापानुबंधी पुण्य के उदय से धन प्राप्त हो भी जाता है, तो उससे ज्यादा पाने की चिन्ता बनी रहती है और उसके संरक्षण की चिन्ता भी पैदा होती है। लेकिन उसका संरक्षण करनेवाले धर्म में उद्यम नहीं करते हैं । ऐसी
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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