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________________ धन्य-चरित्र/176 यही है, जो भोग के लिए हो'- इस प्रकार कहते हैं। अगर वह कुछ भी वस्त्राभरणादि को धारण नहीं करता है, तो उसकी गम्भीरता, धार्मिकता, सन्तोषी - प्रवृत्ति के गुण गाते हैं। यदि धनी अत्यधिक धन व्यय करता है, तो उसे उदार चित्त, परोपकारी कहा जाता है। यदि वह अल्प व्यय करनेवाला होता है, तो यह योग्य-अयोग्य विभाग का ज्ञाता है, विचार करके कार्य को करनेवाला है जो उचित होता है, वही करता है, ज्यादा धन हो, तो क्या गली में बिखेरने के लिए होता है इस प्रकार बोलते हैं । सार यही है कि सभी गुण धनियों में होते हैं और सभी दोष गरीबों में होते हैं। ये सभी गुण जैसे लक्ष्मी से होते हैं, वैसे ही दोष भी सहस्रों होते हैं। इष्ट योग की तरह क्या संसार में अनिष्ट योग नहीं होते? क्योंकि निर्दयत्वमहंकारस्तृष्णाकर्कशभाषणम् । नीचपात्रप्रियत्वं च पञ्चश्रीसहचारिणः । । अर्थात् निर्दयता, अहंकार, तृष्णा, कठोर वचन तथा नीच लोगों की प्रियता-ये पाँच लक्ष्मी के सहचर हैं । तथा भक्तद्वेषो जड़े प्रीतिः प्रवृत्ति गुरुलङ्घने। मुखे च कटुतानित्यं ज्वरीव धनिनां हि यत् । । अर्थात् भोजन में द्वेष (दूसरे अर्थ से सेवकों से द्वेष), जल में प्रीति (दूसरे अर्थ से जड़ = मूर्ख लोगों से प्रीति), पिता आदि का उल्लंघन करना (दूसरे अर्थ से गुरुक = उपवास का उल्लंघन करना), कटु भाषण करना - ये बातें बुखार के रोगी की तरह धनिकों में होती हैं । I इत्यादि अनेक दोषवाला तथा महान अनर्थकारी धन होता है । फिर भी लोग इसको पाने के लिए अत्यन्त प्रार्थना करते हैं । जैसे कि अजीर्ण आदि दोष होने पर भी आहार की इच्छा प्राणियों को होती है । लक्ष्मी अत्यन्त क्लेश से प्राप्त होती है, फिर भी लोग इसकी इच्छा करते हैं, क्योंकि लोक में आग से घर जल जाने पर भी लोग आग की इच्छा करते ही हैं। अतः हे पुत्रों ! दोष की खान होने पर भी धन गृहस्थों के द्वारा नहीं छोड़ा जा सकता, पर धन के लिए तुम लोग परस्पर स्नेह को शिथिल करके कलह का सेवन नहीं करना । कलि अर्थात् बिभीतक का वृक्ष फलप्रदाता होने पर भी सुखार्थी इसका त्याग करते हैं । तुम सभी हमेशा एक-दूसरे के प्रति स्नेह से एकीभूत होकर रहना। नीति में भी कहा है- “समुदायो जयावह' अर्थात् समुदाय जय को प्राप्त करानेवाला होता है, क्योंकि तन्तुओं का समुदाय रूप रस्सा हाथी को बाँधने मे समर्थ होता है । कहा भी है भिद्यन्ते भूधरा येन धरा येन विदार्यते । संहतेः पश्यत प्रौढिं तृणैस्तद् वारि वारितम् । । अर्थात् जिसके द्वारा पर्वत भेदा जाता है, जिसके द्वारा धरती विदीर्ण कर दी
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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