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________________ धन्य - चरित्र / 160 पृथ्वी पर अग्नि भी बर्फ की तरह शीतल हो जाये, पर आप जैसे व्यक्ति कभी भी लोक से विक्षोभित नहीं हो सकते। यह हमारा विश्वास है । फिर भी यह धनसार पूत्कार करता हुआ आया है कि 'आज मेरी पुत्रवधू राजा द्वारा रोक ली गयी है।' इसकी बात हमने किसी ने नहीं मानी, पर इसके दुःख से दुःखी मुख को देखकर सभी ने विचार किया कि हमारे स्वामी तो कल्पान्त में भी ऐसा नहीं कर सकते । परन्तु आपके किसी सेवक ने आपके जानते या अजानते धनसार की बहू रोकी होगी । अतः स्वामी! धनसार के आग्रह से बताकर इसकी शंका का निवारण करने की कृपा करें। ज्ञात नहीं होता है कि किस अपराध से रोकी गयी है? इस बिचारे की बहू यदि अपराधिनी है, तो भी क्षमा करके इस महाजन के घर की शोभा इसे देकर छोड़ दीजिए। ज्यादा क्या कहें? स्वामी! आप खुदः युक्त-अयुक्त के विचार में कुशल हैं। आपके आगे हमारी बुद्धि कितनी ? अतः सौ बात की एक बात है कि महान - कृपा करके इसकी बहू दे दीजिए।" इस प्रकार के महाजन - वृन्द के वचन सुनकर कुछ मुस्कुराते हुए अनसुनी करते हुए अन्यत्र दृष्टि डालते हुए धन्य अन्य किसी के साथ अन्योक्तिपूर्वक तिरस्कार-सूचक रोष-युक्त बात करने लगा - 'हे अमुक ! आजकल इस नगर में लोग ज्यादा वाचाल हो गये हैं । सत्य-असत्य के विभाग को नहीं जानते हुए भी वाचाल लोग दूसरों के घर की चिन्ता करते हुए अनाप-शनाप बकते रहते हैं, क्योंकि दुर्जनों का यही स्वभाव है। कहा भी गया है आत्मनो बिल्वमात्राणि स्वच्छिद्राणि न पश्यति । राजिकाकणमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यति । । अर्थात् अपना तो बिल जितना छिद्र भी नहीं दिखायी देता है और दूसरों का तो सरसों के दाने जितना भी छिद्र हो, तो दिखाई दे जाता है। पर उन सभी को मैं जानता हूँ । अब उन सभी को शिक्षा देनी ही पड़ेगी । ज्यादा कहने से क्या? अच्छा ही होगा। इनका दोष नहीं है । दोष मेरा ही है, क्योंकि मैंने नगरजनों के कानों के द्वार खुले ही छोड़ दिये हैं। अतः कुछ ही दिनों में कहनेवालों को सीधा कर दूँगा । " इत्यादि तिरस्कार-युक्त वक्रोक्ति सुनते हुए इंगित - - आकार आदि द्वारा अपने कथनों को 'अरुचिकर" जानकर उसी समय चाटु वचन कहकर वे सभी धीरे-धीरे उठकर राजद्वार से निकल गये । धनसार भी बाहर आकर महाजनों से कहने लगा—'आप सभी तो उठकर अपने-अपने घर जाने के लिए तैयार हो गये। मेरे कार्य का क्या होगा?” तब वे सभी धनसार को क्रोधपूर्वक कहने लगे - 'हे पेटभरु ! तुमने खुद ही कार्य को बिगाड़ दिया है। अब हमारे सामने क्या चिल्लाते हो? कोई मूर्ख भी जैसा कार्य नहीं करता है, वैसा कार्य तुमने किया है कि प्रतिदिन रूपवती, प्राप्त यौवनवाली
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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