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________________ धन्य - चरित्र / 133 हुए वह मर गया। मरकर दान-पुण्य की महिमा से मगध- अधिपति की राजधानी राजगृह नगरी में समस्त महा-इभ्यों में वरिष्ठ, अनेक कोटि द्रव्य के अधिपति गोभद्र श्रेष्ठी की भार्या भद्रा की कुक्षि में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ । स्वप्न में जननी द्वारा हरा-भरा शालि का खेत देखा गया। उसने श्रेष्ठी को निवेदन किया । श्रेष्ठी ने भी कहा- 'यह अति उत्तम स्वप्न है। इसके अनुभाव से तुम्हारे कुल की पताका-स्वरूप पुत्र होगा । तब उसका शालिभद्र नाम रखूँगा । " इस प्रकार के श्रेष्ठी के वचन सुनकर सेठानी गर्भ का हर्षपूर्वक पालन करने लगी। गर्भ के दिन पूर्ण होने पर सेठानी ने सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । तब गोभद्र श्रेष्ठी ने बारह दिवस तक महोत्सव करके, स्वजन - कुटुम्ब आदि को भोजन कराकर और वस्त्राभूषण से अलंकृत करके समस्त स्वजन तथा ज्ञातिजन के समक्ष शालिभद्र नाम रखा । पाँच धायों से लालित वह वृद्धि को प्राप्त होने लगा। क्रमशः यथावसर अपने कुल के अनुरूप कलाएँ भी उसने पढ़ी। इस तरह युवति-जनों के मन को हरण करनेवाले यौवन को प्राप्त हुआ । पिता ने श्रेष्ठ कुल की बत्तीस कन्याओं के साथ उसका विवाह किया। उसके बाद पूर्व- दत्त दान - फल के विपाकोदय से नित्य ही सुख की लीलाओं में यथेच्छापूर्वक रमण करने लगा । उधर उस समय राजगृह नगर में जो शठ - जार- कुटिल - दम्भी - धूर्त आदि थे, वे समस्त बुद्धि के घर समान अभय के देशान्तर - गमन को जानकर नागरिकों को लूटने के लिए तत्पर हो गये थे । उस समय एक आँख से काना एक धूर्त अवसर देखकर सम्यग् व्यवहारी का वेश बनाकर मूर्तिमान दम्भ की तरह गोभद्र श्रेष्ठी के घर जाकर और नमन करके धन में कुबेर के समान गोभद्र श्रेष्ठी को कहा- 'हे गोभद्र श्रेष्ठी ! आपके स्मृति - पथ पर है या नहीं?" गोभद्र श्रेष्ठी ने पूछा-‘क्या?” धूर्त ने कहा- 'पूर्व में हम दोनों चम्पा गये थे। उस समय चम्पा में बहुत से व्यापारी आये हुए थे। तब मैं भी व्यापार करने के लिए प्रवृत्त हुआ । पर यथेप्सित द्रव्य के बिना व्यापार नहीं होता। इस चिन्ता से युक्त मन में खेदित होता हुआ 'यह सज्जन परोपकार में प्रवीण है" इस प्रकार जानकर आपके पास आया। मैंने आपको कहा - हे श्रेष्ठी ! मुझे लाख द्रव्य से प्रयोजन है । अतः मुझे लाख द्रव्य प्रदान कीजिए। मैं आपके द्रव्य से व्यापार करके लाभ लेकर ब्याज सहित आपका लाख द्रव्य हाथ जोड़कर दूँगा । जिसका जितना देय है, उसे उसका द्रव्य नौकरी करके भी देना चाहिए । इसलिए लाख द्रव्य मुझे दीजिए। यदि आपको विश्वास न हो, तो मैं देह की सारभूत एक आँख को गिरवी रखता हूँ । यथावसर इस देय को देकर ग्रहण करूँगा । इस प्रकार कहकर मेरे द्वारा आपसे लाख द्रव्य ग्रहण किया गया। उस द्रव्य से बहुत बड़ा
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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