SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य-चरित्र/128 कीजिए, जिससे मेरा जन्म और जीवन सफल हो। आपके आगमन से गरीबों को निधान मिलने की तरह मेरा अति उग्र मनोरथ रूपी वृक्ष सफल होगा।" तब सरल आशयवाले अभय ने स्वीकृति प्रदान करते हुए उसे रवाना किया। उसने भी अपने उत्तारक-घर में जाकर जैसा सोचा था, वैसा किया। यथावसर अभय भी स्वल्प-परिच्छेद के साथ भोजन करने के लिए आया। उस दम्भिनी ने अत्यन्त आदर-भाव प्रदर्शित किया। मंत्री भी उसके दिये हुए आसन पर बैठा। सेवक तो बाहरी द्वार के अन्दर ही बैठ गये। क्षणभर धर्म मार्ग का अनुसरण करनेवाली वार्ता करके मंत्री उठा। फिर अभ्यङ्ग-स्नानपूर्वक भोजन के लिए बैठा। भक्तिपूर्वक विविध रसवती को परोसती हुई वह धर्म मार्ग का अनुसरण करनेवाली कल्पनीय-अकल्पनीय आदि की वार्ता करने लगी, जिससे अभय के बुद्धि-पथ पर उसके दम्भ का खयाल लेशमात्र भी नहीं आया। भोजन के अन्त में उसने दही की प्रतिरूपिका चन्द्रहास नामक मदिरा धोखे से पिला दी। उसके परिवार को भी पीला दी। भोजन के बाद अच्छे आसन पर बिठाकर ताम्बूलादि देकर मंत्री के सामने बैठती हुई जब शिष्टाचार की बातें करने लगी, तभी मदिरा के बल से अभय को नींद आ गयी। जब वह पूर्ण रूप से बेहोश हो गया, तो पहले से निश्चय किये हुए अपर द्वार से उसे रथ में बिठाकर और स्वयं आरूढ़ होकर उज्जयिनी के मार्ग की ओर चली। स्थान-स्थान पर अन्य-अन्य रथ पर चढ़ते हुए थोड़े ही दिनों में उज्जयिनी को प्राप्त हुई। फिर वह मूर्च्छित अभय के हाथादि बाँधकर प्रद्योत के पास लायी। तब तक उसकी मदिरा-जनित मूर्छा भी उतर चुकी थी। आलस्य त्यागकर उठता हुआ अभय इधर-उधर देखने लगा और विचारने लगा-"यह अदृष्ट पूर्व स्थान कौन-सा है? मैं किस के द्वारा लाया गया हूँ?" वह इस प्रकार ऊहा-अपोह आदि कर ही रहा था, तभी प्रद्योत ने कहा- "हे अभय! तुम मेरा कहा हुआ सुनो! नीतिज्ञ, अनेक शास्त्रों में कुशल वाक्पटु, परोपदेश कुशल एवं बहोत्तर कलाओं के पठन में कुशल होते हुए भी जैसे तोता बिल्ली के द्वारा ग्रहण तथा भक्षण किया जाता है, वैसे ही तुम भी बहुत से विज्ञानों में विदुर होने पर भी, देश-देशान्तर में भी तुम्हारे सदृश कोई भी नहीं है- इस प्रकार ख्याति प्राप्त होने पर भी, सर्व-समय व्युत्पन्नमति युक्त होने पर भी बिल्ली के समान वेश्या के शिकंजे में तुम आ ही गये। अतः धिक्कार है तुम्हारे बुद्धि-चातुर्य को! तुम्हारी प्रत्येक काल में रहनेवाली सावधानता कहाँ गयी? सत्य और असत्य की परीक्षकता कहाँ गयी?"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy