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________________ धन्य-चरित्र/124 राजा ने कहा-"धन के लोभ से तुमलोग स्वामी से भी द्रोह करने लगे, पर मेरे सुहृद सुधी अभय ने मुझे बता दिया और यह सूक्ति सत्य साबित हुई, कि पण्डितोऽपि वरं शत्रुर्न मूो हितकारकः । अर्थात् शत्रु पण्डित भी हो, तो श्रेष्ठ है, पर हितकारक मूर्ख हो, तो श्रेष्ठ नहीं है।" इस प्रकार का राजा का कथन सुनकर उन राजाओं तथा वृद्ध सैनिकों ने मुस्कराते हुए कहा-"स्वामी! यह तो अभय की माया थी, जो आप नही लख पाये। शीघ्रता में वापस लौटने से व्यर्थ ही आपकी और हमारी मान-हानि हुई है। गया हुआ मान सैकड़ों वर्षों से भी वापस नहीं आता। हम तो प्रणान्त कष्ट आने पर भी विश्वासघात की बात भी नहीं सोच सकते। क्योंकि कहा है मित्रद्रोही कृतघ्नश्च स्वामीद्रोही पुनः पुनः। विश्वासघातकश्चैते सर्वे नरकगामिनः ।। अर्थात् मित्रद्रोही, कृतघ्नी, स्वामीद्रोही और विश्वासघाती-ये सभी नरकगामी होते हैं।" इस प्रकार कहकर सौ-सौ बार कसम खा-खा कर अपने स्वामी को विश्वास दिलाया। राजा भी उसे दम्भ-रचना मानकर अत्यधिक दुःख करने लगा। लेकिन अवसर-भ्रष्ट पुनः स्थान को प्राप्त नहीं करता। इस प्रकार शल्य के साथ काल का निर्वाह करने लगा। एक बार सभा में प्रद्योत ने कहा-"इस सभा में कोई ऐसा है, जो अभयकुमार को बाँधकर यहाँ ले आये?" राजा द्वारा कथित इस अशक्य अनुष्ठान को सुनकर सभी ने गर्व-आवेश से रहित होकर कहा-"स्वामी! गरुड़ के पंखों को छेदने की चेष्टा कौन बुद्धिमान करेगा? अथवा हाथी के दाँत को उखाड़ने के लिए कौन तिरस्कृत होगा? अथवा कौन शेषनाग के मस्तक पर स्थित मणि ग्रहण करने के लिए प्रयत्न करेगा? कौन केशरी सिंह के केशों को कतरने की इच्छा करेगा। हे राजन! शास्त्र-गर्जना-निष्प्रतिमा-प्रतिमा-इन चतुष्टय की निधि स्वरूप अभय को निगृहित करने के लिए कौन चेतनवान प्राणी आग्रही होगा? अर्थात् कोई नहीं होगा।' उसी समय किसी गणिका ने अवसर पाकर राजा के हृदय-दाह के नाशक वचन कहे-“हे पृथ्वीनाथ! इस कार्य की मुझे आज्ञा देवें। मैं उस अभय को बाँधकर आपके चरणों में लाऊँगी।"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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