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________________ धन्य-चरित्र/116 है, पर स्त्री की त्रिवली रूप राग, नरक रूपी समुद्र की तरंगों की तरह अति दुष्टतर है। योग शास्त्र में भी कहा है नपुंसकत्वं तिर्यक्त्वं दौर्भाग्यं च भवे भवे । भवेद् नराणां स्त्रीणां चान्यकांताऽऽसक्तचेतसाम् ।। अर्थात् पुरुषों और स्त्रियों द्वारा क्रमशः पर नारियों तथा पर पुरुषों में आसक्त रहने पर भव-भव में नपुंसकता, तिर्यंचपना तथा दुर्भाग्य प्राप्त होता है। और भी वरं ज्वलदयस्तम्भपरिरम्भो विधीयते। न पुनः नरकद्वारं रमाजघनसेवनम्।। अर्थात् जलते हुए स्तम्भ का आलिंगन करना श्रेष्ठ है, पर नरक के द्वार रूप नारी का जघन्य सेवन ठीक नहीं है। हे भामिनी! नारी का साथ संध्या-समय के बादलों के रंग के तुल्य है। मनुष्य की आयु वायु के समान अस्थिर है। वह भी क्रिया-विशेष से अथवा द्रव्य अनुयोग से ही स्थिर होती है, अगर एक बार टूट जाये, तो फिर संधती नहीं। भोग तो नवोत्पन्न रोग की तरह उद्वेग के लिए ही है। भर्तृहरि ने वैराग्य शतक में कहा है भोगे रोगभयं सुखे क्षयभयं वित्तेऽग्नि-भूभृद्भयं; दास्ये स्वामिभयं, गुणे खलभयं, वंशे कुयोषिभयं माने म्लानिमयं, बले रिपुभयं, देहे कृतान्ताभयं, सर्व वस्तु भयाऽन्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाऽभयम् ।। अर्थात् भोग में रोग का भय, सुख में नाश का भय, धन में अग्नि और राजा का भय, दासता में स्वामी का भय, गुणों में दुष्ट का भय, वंश में कुनारी का भय है। मान में म्लानि का भय, बल में शत्रु का भय, शरीर में मृत्यु का भय है। अर्थात् सर्व वस्तु पृथ्वी पर भय से युक्त है। मनुष्यों के लिए वैराग्य ही अभय इस प्रकार से सामान्य से भी काम-भोग प्रबल दुःख के हेतु होते हैं, तो पुनः विकृत विष की तरह अत्यधिक भव-भ्रमण के हेतु रूप पर-स्त्री के संगम से उत्पन्न काम-भोग का तो कहना ही क्या? हे देवी! तुम भी मन को स्थिर करके मन में विचार करो। जो इस प्रकार की अत्यधिक सुख से संयुक्त दिव्य शक्ति तुमने प्राप्त की है, वह काम-भोग के त्याग का फल है या काम-भोग के आसेवन का फल है? काम-भोग में आसक्त जीवों की उत्पत्ति तो नरक व तिर्यंच में ही होती है। अतः हे नितम्बिनी!
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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