SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य-चरित्र/114 में प्रकट होकर महा-मोह से धन्य को मोहित करने के लिए बहुत से हाव-भाव करने लगी। अमूढलक्ष्यी कटाक्ष-बाणों को उसके ऊपर फेंका। तब धन्य ने भी धीरता का अवलम्बन लेकर अजेय ब्रह्म रूप कवच को हृदय में धारण कर लिया। पुनः वह बाहु-मूल-त्रिवली-नाभि के मध्य भाग-भौंह-स्तर-केश आदि काम-कोष के अक्षीण विभ्रमों को बार-बार दिखाने लगी। युवाओं के मनोद्रव्य को पिघलाने में क्षार के सदृश किये गये उसके हाव-भाव-कटाक्ष-विक्षेप रूपी बाण शुद्ध खान में निष्पन्न वज्र पर लोहघन की तरह धन्य पर निष्फल ही साबित हुए। तब हाव-भाव से अक्षुब्ध धन को देखकर पुनः वह उन्मादपूर्वक शृंगार-रस से गर्भित, परम उन्माद को उद्दीपन करनेवाले, अणगारों को भी क्षोभजनक, कामीजनों के मन को वश में करनेवाली वाणी में कहा-“हे सौभाग्य निधि! मैं ग्रीष्मकाल के मध्याह्न में अति थोड़े जलवाले सरोवर में तप्त मछली की तरह अत्यधिक काम रूपी अग्नि की ज्वाला से जलती हुई तुम्हारी शरण में आयी हूँ। अतः हे दयानिधे! शीघ्र ही अपने अंग के संगम रूपी सुधा-कुण्ड में मुझे क्रीड़ा कराओ। मेरा इच्छित पूर्ण करने में तुम समर्थ हो। यह मानकर ही तुम्हारे गुणों में आक्षिप्त चित्तवाली में प्रार्थना करती हूँ। तुम्हे मेरी आशा पूरी करनी चाहिए। प्रार्थना का भंग करने में महान दोष है। क्योंकि शास्त्र में भी कहा गया है तणलहुओ तूसलहुओ तहेव लहुआओ मग्गणो लहुओ। पत्थगा वि हु लहुयरो पत्थणाभंगो कओ जेण।। अर्थात् तृण लघु है, तूष लघु है, इन लघुओं से भी लघु, माँगना है। पर प्रार्थक अर्थात् माँगनेवाले से भी लघु वह है, जो सामनेवाले की प्रार्थना ठुकरा देता है। अतः यथेच्छापूर्वक मेरे साथ सुरत-क्रीड़ा करके मेरी आर्ति को बुझाओ।" उसके इस प्रकार के वचनों को सुनकर पर-नारी-पराङ्मुख धन्य ने साहस का अवलम्बन लेकर गंगादेवी को इस प्रकार कहा-"हे जगत मान्या! हे माता! आज के बाद ऐसे धर्म-विरुद्ध वचनों को कभी मत बोलना। तुम्हारे हृदय में रहा हुआ तन रूपी राक्षस द्वारा किया हुआ विक्षोभ मेरे मन को भयभीत नहीं करता है, क्योंकि कुविकल्प रूपी सेना का नाश करनेवाले श्री जिनागम रूपी ब्रह्ममंत्र से मैं पवित्र हूँ। नव प्रकार के ब्रह्मचर्य की वाड़ रूपी कवच से मैं सन्नद्ध हूँ। अतः उन दुर्निवार काम रूपी अस्त्रों से मेरा व्रत रूपी शरीर भेदित नहीं होता। कालकूट विष के समान उत्कट, मद से रहित तुम्हारे ये कटाक्ष श्री जिन-वाक्य रूपी अमृत से आर्द्र मेरे चित्त को पीड़ित नहीं करते। हे मृगनयनी! तुम्हारे कुवाक्य रूपी ये मृग मुझ जागृत सिंह की गुफा को स्पर्श करने तक में समर्थ नहीं है। इसी तरह तुम्हारे ये विचित्र विकृति से युक्त
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy