SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन्य-चरित्र/106 मुनिराज ने कहा-“विन्ध्य अटवी में सुग्राम नाम के ग्राम से सीमा के समीप गहन वन में हाथिनी की कुक्षि से हाथी के रूप में उत्पन्न हुआ है।" पुनः सुनन्दा ने पूछा-"भगवन! इसका कभी उद्धार भी होगा या नहीं?" मुनि ने कहा-"तुम्हारे मुख से अपने सात भवों की विडम्बना सुनकर उसे जाति-स्मरण ज्ञान होगा। तुमसे धर्म प्राप्त करके तप करके समाधिपूर्वक मरकर सहस्रार देवलोक में देव होगा। वहाँ से च्युत होकर सिद्ध होगा। अतः तुम दीक्षा अंगीकार करके अपना भव सफल करो।" तब सुनन्दा ने राजा से कहा-"स्वामी! जाति, कुल, धर्म व नीति के विरुद्ध आचरण करके पाप-भार से भारी बनी, कुलटा, कुकर्म करने में परायण, निर्लज्जा मुझे यदि आप आज्ञा देवें, तो मैं दीक्षा लेकर भव का निस्तार करूँ।" राजा ने कहा-'"हे सुभ्रू! सभी जीव कर्म के अधीन होकर उसके उदय बल से जो अकर्तव्य है, उसको करते हैं। अकृत्य करके जन्म-जरा-मरण-रोग से संकुल नरक-तिर्यंच आदि रूप चातुर्गतिक गहन ससार में परिभ्रमण करते हैं। सभी की यह भित्ति आगे से ही है। जब तक गृहवास की स्थिति है, तब तक निर्दोषता कहाँ से हो? अतः मैं भी नरक-फल रूप राज्य का त्याग करके संयम लेने के लिए उत्सुक हूँ। अतः जिस किसी को भी संसार से भय हो, वह सुख से भागवती दीक्षा अंगीकार करें। वे सभी मेरे आत्मीय, प्रशंसनीय, धन्य शूरतम तथा प्रेम सम्बन्धी जानने चाहिए।" इस प्रकार के राजा के कथन को सुनकर सभी सभ्यों ने राजा से निवेदन किया-"स्वामी के साथ हम सभी भी चारित्र ग्रहण करेंगे। सेवक स्वामी का अनुसरण करनेवाले होते हैं। इस सेवक-धर्म को हम सफल करेंगे।" इस प्रकार की उनकी वाणी सुनकर हर्षित होते हुए राजा ने मुनि से कहा-"स्वामी! लोक-व्यवहार से मुझे राज्य पुत्रादि के अधीन करना होगा। वह कार्य करके आपके पास चारित्र ग्रहण करूँगा। अतः दया करके इस नगर के उद्यान में मात्र दो दिन के लिए रुक जाइए, जिससे मेरा मनोरथ रूपी वृक्ष सफल हो जाये।" मुनिराज ने कहा-"राजन! यदि तुम्हारा ऐसा मनोरथ है, तो गाऊ-परिमाण मार्ग के नजदीक गाँव में हमारे गुरु पधारे हैं, वहाँ आ जाना और चिंतित अर्थ को सफल करना। हम तो गुरु आज्ञा के बिना रुकने में समर्थ नहीं है। तुम्हारा धर्मलाभ हो, हम जाते हैं।" यह कहकर दोनों मुनि गुरु के पास चले गये। राजा ने भी घर आकर, अपना राज्य पुत्रों को दे दिया। सभी को जिन आज्ञा समझाकर महा-ऋद्धि के
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy