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________________ कुमारपाल सिद्धराज की इस दुर्भावना को भाँप कर परदेश चला गया । अज्ञात रूप से चौबीस वर्ष बिताये । अन्त में वि.सं. ११९९ में सिद्धराज परलोकवासी हुआ तब कलिकालसर्वज्ञ आ. हेमचन्द्रसूरि के आशीर्वाद से कुमारपाल गुजरात की राजगद्दी पर आया । कुमारपाल ने अपने राज्यकाल में अनेक देशों पर विजय पाई और राज्य का खूब विस्तार किया । बडी उम्र होते हुए भी व्याकरण, काव्य, कोश आदि का अध्ययन कर 'आत्मनिंदाद्वात्रिंशिका' ग्रन्थ की रचना की। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि के उपदेश से कुमारपाल ने मांस, मद्य सेवन आदि सात महाव्यसनों का त्याग किया, वि.सं. १२०८ में सदा के लिए 'अमारि' का प्रवर्तन करवाया और वि.सं. १२१६ में जैन श्रावक के व्रतों को ग्रहण किया । जैन धर्म स्वीकारने के बाद चौदह वर्ष में चौदह करोड सुवर्णमुद्राओं का व्यय साधर्मिक भक्ति में किया । नि:संतान मृतक के धन के ग्रहण का निषेध किया । २१ ज्ञानभण्डारों का लिखवाना, सात बार तीर्थयात्राएँ, त्रिभुवनविहार-कुमारपाल विहार आदि १४४४ नये मन्दिरों का बनवाना, १६०० मन्दिरों का जीर्णोद्धार, वि.सं. १२२६ में शत्रुञ्जय तीर्थ का 'छ'री पालित संघ इत्यादि कुमारपाल के शासनं प्रभावना और आराधना के कार्य है। वि.सं. १२२९ में कुमारपाल स्वर्गवारी हुए । राजा अनासवाल कुमारपाल के बाद उनका भतीजा अजयपाल राजगददी पर आया । वह अयोग्य था । वह कुमारपाल द्वारा नव ति ओर जीर्णोद्धार मन्दिरों को तोडने स, कपदी मम्मी को एक के लिए महामात्य बनाकर तपे हुए तैल की कढाही में (नवा दिया, मंत्री बाहड को भी मरवा डाला, आ. श्री रामचन्द्रसूरि को तपे हुए तांबे के पाट पर बैठाकर मार डाला, ग्रन्थभण्डारों को जला दिया । इत्यादि कुकृत्यों द्वारा पाप से भारी होकर अल्पकाल में ही वि.सं. १२३२ में कुत्ते की मौत मरकर नरक का अतिथि हआ । (६९)
SR No.022704
Book TitleJain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandrasuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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