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________________ आचार्य श्री सूराचार्य आ० श्री द्रोणाचार्य के शिष्य आ० श्री सूराचार्य हुए । ये पूर्व पर्याय से आचार्य के भतीजे थे । श्री सूराचार्य स्वयं प्रकाण्ड विद्वान्, वादी और कवि थे और अपने शिष्यों को भी उच्चकोटि के विद्वान् और वादी बनाना चाहते थे । इसलिए शिष्यों के प्रति सख्ती वर्तते थे । आ० श्री द्रोणाचार्य को यह ज्ञात हुआ, तब मीठा उपालंभ देते हुए कहा कि अल्पबुद्धि वाले शिष्यों से ऐसी आशा नहीं रखनी चाहिए और शासन-प्रभावना करनी हो तो मालवा में जाकर भोजराज की सभा को जीत आओ। गुरु के उपालंभ को आशीर्वाद समझ कर आपने धारा की तरफ विहार किया। राजा भोज ने भी बडे सन्मान से आपका नगर प्रवेश करवाया। राजा द्वारा षड् दर्शनों की एकता का निष्फल प्रयास एक दिन भोजराज ने षड् दर्शनों के लगभग एक हजार आचार्यों को एक स्थान में बन्द कर आदेश दिया कि सभी मिलकर एक ऐसे दर्शन की रचना करो जिससे भेद मिट जाय, भ्रान्ति न रहे । ध्यान रहे कि यह कार्य पूरा करेंगे तब ही मुक्त हो सकेंगे। सभी धर्माचार्यो ने श्री सूराचार्य को विज्ञप्ति करवाई कि आप हमें कैसे भी मुक्त करावें । श्री सूराचार्य आश्वासन देकर राजा भोज से मिले और कहा- राजन ! धारा में अनेक मन्दिर और अनेक बाजार आदि अलग अलग क्यों है ? आपके मत से सभी एक हो जाते तो लोगों को भटकने का दु:ख न रहता। भोजराजसभी को अलग-अलग माल की जरुरत होती है । यदि एक ही स्थान में सभी ग्राहक इकट्ठे हो जाएँ तो बडी गडबडी मच जाय । अतः आवश्यकता के अनुसार अलग-अलग बाजार रखे गये हैं, जो नगर-व्यवस्था के लिए आवश्यक भी है। आचार्य- राजन् ! लोग भी भिन्न-भिन्न रुचि के होते हैं। जो दयाप्रेमी हैं वे जैन धर्म को पालें, जो खाने-पीने के शौकीन है वे कौल धर्म को माने, व्यवहारप्रधान वैदिक धर्म को अपनावें और मोक्ष-रुचि निरंजन देव की उपासना करें । एवं जो संस्कार जीवों में चिरकाल से रुढ है वे एकदम कैसे छूट सकेंगे? राजा को आचार्य श्री की युक्ति से संतोष हुआ और सभी धर्माचार्यो को मुक्त कर दिया गया। (५४)
SR No.022704
Book TitleJain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandrasuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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